सुर्यदेव व उनका परिवार
नतलंकमअ – भ्पे थ्ंउपसल
मत्सय पुराण के अनुसार, सूर्यदेव की चार पतिनयां संज्ञा, राज्ञी, प्रभा और छाया थीं। चौथी पत्नी छाया संज्ञा के शरीर से उत्पन्न हुर्इ थी। संज्ञा के वैवस्वत मनु और यम दो पुत्र व यमुना नाम की पुत्री उत्पन्न हुर्इ । राज्ञी के रैवत व प्रभा के प्रभात नामक पुत्र हुए। चौथी पत्नी छाया के दो पुत्र सावर्णि और शनि तथा दो कन्याएं तपती व विष्टि उत्पन्न हुर्इ ।
छाया की उत्पति का भी एक कारण था कि जब संज्ञा सूर्यदेव के तेज को सहन नहीं कर सकी तब अपने ही अंग से छाया को उत्पन्न किया और उससे कहा, “हे छाया ! तुम मेरे पति की सेवा करती रहना और मेरी संतानों का भी पालन-पोषण करना” । तब छाया “ऐसा ही होगा” कहकर पति की सेवा में चली गर्इ । सूर्यदेव अनभिज्ञता के कारण छाया को संज्ञा समझकर यथावत व्यवहार करते रहे जिससे छाया के दो पुत्र सावर्णि और शनि तथा दो कन्याएं तपती व विषिट उत्पन्न हुर्इ । इस तरह सूर्यदेव को कुल नौं संतानों की प्रापित हुर्इ , जिनमें छह पुत्र व तीन कन्याएं थीं। छाया को अपना पुत्र सावर्णि औरों से अधिक प्रिय था ये व्यवहार संज्ञा पुत्र यम सहन नही कर सके और एक दिन आवेश में आकर अपना दांया पैर उठाकर उसे मारने की घमकी देने लगे । यम के इस कृत्य छाया ने शाप दिया, श ओ यम ! तुम्हारे इसी पैर को कीट भक्षण करेंगे और इससे रक्त व पीत बहता रहेगा ।
शापित होकर यम अपने पिता सूर्यदेव के पास गए और पिता से कहने लगे, श् हे पिता श्री ! माता छाया ने मुझे निरपराध ही शाप दे दिया । मेरा दोष केवल इतना है कि बाल-चपलता के कारण मैने अपना दांया पैर कुछ उपर उठा लिया । मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि वो हमारी माता नहीं है। पुत्र यम के कथन सुनकर सूर्यदेव बोले, श्पुत्र कर्म फल तो भोगना ही पड़ता है फिर वो चाहे जाने हुआ हो या अनजाने । यही विधाता का विधान है अत: हे पुत्र ! मैं तुम्हें एक मुरगा दे रहा हूँ ये तुम्हारे पैर के कीटों का करेगा और स्त्रावित पीव व रक्त को भी दूर करेगा।
इधर जब सूर्यदेव को संज्ञा और छाया के कृत्य को जानकर संज्ञा के पिता विश्वकर्मा के पास गए । तब विश्वकर्मा ने उन्हें बताया कि संज्ञा घोड़ी के रूप में उनके पास आई अवश्य थी परन्तु पति की जानकारी के बिना उस रुप में संज्ञा को कोई स्थान नहीं मिला। इस प्रकार दोनों स्थानों से निराश होकर वह भूतल स्थित मरुदेश में चली गई। तब विश्वकर्मा ने सूर्यदेव से प्रार्थना कर के उनके तेज को कम कर दिया परन्तु पैरों का तेज कम करने में असमर्थ रहे । अत: सूर्यदेव के पैरों का तेज यथावत रहा । यही कारण है कि आज भी सूर्यदेव के विग्रह में पैर नही बनाए जाते । यदि कोई विग्रह में पैर बनाए तो वह कुष्ठरोगी होता है । संज्ञा के बारे में जानकर सूर्यदेव भूतल स्थित मरुदेश में घोड़े के रुप आए तब संज्ञा ने उन्हें पहचान लिया और सूर्यदेव संज्ञा को अपने साथ स्वर्गलोक लेकर आ गए ।
छाया पुत्र सावर्णि ने घोर तप करके अमरत्व प्राप्त करके आज भी समेरु पर्वत पर विराजमान है । यम ने शिव की घोर तपस्या करके धर्माधर्म के निर्णायक का पद, लोकपाल व पितरों का अधिपत्य मांग लिया। जबकि शनि ने तप करके ग्रहों की समता प्राप्त कर ली। यमुना व तपती नदी का रुप धारण कर आज भी भूतल पर प्रवाहवान है। तीसरी कन्या विष्टि भद्राकाल रुप में परिवर्तित हो गई।