Category Archives: Lord Shani Dev
Names of God Shani dev
108 Names of God Shani dev
1. | Om shanaescaraya namah |
2. | Om shantaya namah |
3. | Om sarvabhistapradayine namah |
4. | Om sharanyaya namah |
5. | Om vagenyaya namah |
6. | Om sarveshaya namah |
7. | Om saumyaya namah |
8. | Om suramvandhaya namah |
9. | Om suralokaviharine namah |
10. | Om sukhasonapavishtaya namah |
11. | Om sundaraya namah |
12. | Om ghanaya namah |
13. | Om ghanarupaya namah |
14. | Om ghanabharanadharine namah |
15. | Om ghanasaravilepaya namah |
16. | Om khadyotaya namah |
17. | Om mandaya namah |
18. | Om mandaceshtaya namah |
19. | Om mahaniyagunaatmane namah |
20. | Om martyapavanapadaya namah |
21. | Om maheshaya namah |
22. | Om dhayaputraya namah |
23. | Om sharvaya namah |
24. | Om shatatuniradharine namah |
25. | Om carasthirasvabhavaya namah |
26. | Om acamcalaya namah |
27. | Om nilavarnaya namah |
28. | Om nityaya namah |
29. | Om nilanjananibhaya namah |
30. | Om nilambaravibhushaya namah |
31. | Om nishcalaya namah |
32. | Om vedyaya namah |
33. | Om vidhirupaya namah |
34. | Om virodhadharabhumaye namah |
35. | Om bhedaspadasvabhavaya namah |
36. | Om vajradehaya namah |
37. | Om vairagyadaya namah |
38. | Om viraya namah |
39. | Om vitarogabhayaya namah |
40. | Om vipatparampareshaya namah |
41. | Om vishvavandyaya namah |
42. | Om gridhnavahaya namah |
43. | Om gudhaya namah |
44. | Om kurmangaya namah |
45. | Om kurupine namah |
46. | Om kutsitaya namah |
47. | Om gunadhyaya namah |
48. | Om gocaraya namah |
49. | Om avidhyamulanashaya namah |
50. | Om vidhyaavidhyasvarupine namah |
51. | Om ayushyakaranaya namah |
52. | Om apaduddhartre namah |
53. | Om vishnubhaktaya namah |
54. | Om vishine namah |
55. | Om vividhagamavedine namah |
56. | Om vidhistutyaya namah |
57. | Om vandhyaya namah |
58. | Om virupaakshaya namah |
59. | Om varishthaya namah |
60. | Om garishthaya namah |
61. | Om vajramkushagharaya namah |
62. | Om varada bhayahastaya namah |
63. | Om vamanaya namah |
64. | Om jyeshthapatnisametaya namah |
65. | Om shreshthaya namah |
66. | Om mitabhashine namah |
67. | Om kashtaughanashakartre namah |
68. | Om pushtidaya namah |
69. | Om stutyaya namah |
70. | Om stotragamyaya namah |
71. | Om bhaktivashyaya namah |
72. | Om bhanave namah |
73. | Om bhanuputraya namah |
74. | Om bhavyaya namah |
75. | Om pavanaya namah |
76. | Om dhanurmandalasamsthaya namah |
77. | Om dhanadaya namah |
78. | Om dhanushmate namah |
79. | Om tanuprakashadehaya namah |
80. | Om tamasaya namah |
81. | Om asheshajanavandyaya namah |
82. | Om visheshaphaladayine namah |
83. | Om vashikritajaneshaya namah |
84. | Om pashunam pataye namah |
85. | Om khecaraya namah |
86. | Om khageshaya namah |
87. | Om ghananilambaraya namah |
88. | Om kathinyamanasaya namah |
89. | Om aryaganastutyaya namah |
90. | Om nilacchatraya namah |
91. | Om nityaya namah |
92. | Om nirgunaya namah |
93. | Om gunatmane namah |
94. | Om niramayaya namah |
95. | Om nandyaya namah |
96. | Om vandaniyaya namah |
97. | Om dhiraya namah |
98. | Om divyadehaya namah |
99. | Om dinartiharanaya namah |
100. | Om aryajanaganyaya namah |
101. | Om aryajanaganyaya namah |
102. | Om kruraya namah |
103. | Om kruraceshtaya namah |
104. | Om kamakrodhakaraya namah |
105. | Om kalatraputrashatrutvakaranaya namah |
106. | Om pariposhitabhaktaya namah |
107. | Om parabhitiharaya namah |
108. | Om bhaktasanghamanobhishtaphaladaya namah |
शनैशचर तीर्थ व पीठ
गोदावरी नदी के उतरी तट पर अश्वत्थ तीर्थ के साथ ही शनैश्चर तीर्थ भी है, जिसकी बड़ी महीमा है। संक्षिप्त ब्रहमपुराण में कथा आती है कि विंध्य पर्वत नित्य उपर की ओर बढ़ने से देवता चिंतित हो गए और वे सब अगस्त्य मुनि के पास गए तथा उनसे प्रार्थना की कि हे मुनिवर! टाप विंध्य पर्वत को ऊपर की ओर बढ़ने से रोकें ।
देवताओं की प्रार्थना पर मुनि अगस्त्य हजारों मुनियों के साथ विंध्य पर्वत के समीप पहुंचे। उन्होंने देखा कि विंध्य पर्वत बहुत ऊंचा था और सूर्य से बराबरी कर रहा था। उस पर्वत पर सैकड़ों शिखर व असंख्य वृक्ष थे।
मुनि अगस्त्य को देखकर विंध्य पर्वत ने उनका आतिथ्य किया। तब मुनि ने पर्वत की प्रशंसा की और देवतों की कार्यसिद्धि के लिए विंध्य पर्वत से बोले कि हे पर्वतश्रेष्ठ! मैं मुनिजनों के साथ तीर्थटन के लिए दक्षिण दिशा की ओर जा रहा हूं। तुम मुझे रास्ता दो। आतिथ्य के प्रतिफल स्वरुप मैं तुमसे यही मांगता हुं कि जब तक मैं लौट न आऊं, तब तक तुम अधो अवस्था में यही रहो। विंध्य पर्वत ने मुनि अगस्त्य की बात मान ली। फिर मुनि दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े । वे गौतमी नदी के तट पर पहुंचे और सांवत्सरिक यज्ञ में दीक्षित हो एक वर्ष के लिए यज्ञ प्रारंभ किया। उन्हीं दिनों कैटभ असुर के पुत्र आतंक मचाए हुए थे। उनके नाम थे अश्वत्थ और पिप्पल। देवलोक में भी उनका आतंक था। वे नित्य ब्राह्मणों को पीडि़त किया करते थे। ब्राह्मणों की पीड़ा को देख मुनि अगस्त्य गोदावरी के दक्षिणी तट पर गए, जहां सूर्यपुत्र शनि तपस्यारत थे। मुनि ने उन्हें राक्षसों के अत्याचार की बात बतलार्इ, तब शनि ने ब्राह्मण का वेश धारण किया और अश्वत्थ नामक राक्षस के पास जाकर उसकी प्रदक्षिणा की।
शनि को प्रदक्षिणा करते देख अश्वत्थ ने उन्हें सामान्य ब्राहमण समझा और नित्य भांति माया करके उन्हें अपना ग्रास बना लिया। अश्वत्थ के पेट में चले जाने पर शनि ने उसकी आंतों पर क्रूर दॄष्टि डाली। दॄष्टि पड़ते ही वह राक्षस व्रज से मारे हुए के समान पर्वत की भांति एक क्षण में ही जलकर भस्म हो गया।
इस प्रकार अश्वत्थ का वध करके शनि उसके भार्इ पिप्पल के वेदपाठी ब्राह्मण के रुप में उपस्थित हुए। उन्होंने ऐसा प्रदर्शन किया, मानों वे उसके शिष्य हों। पिप्पल ने पूर्व की भांति अन्य शिष्यों की तरह अपना ग्रास बना लिया। शनि ने उसके पेट में पहुंचकर पहले की तरह उसके भी आंतों पर क्रूर दॄष्टि डाली। फलस्वरुप वह भी देखते-ही-देखते जल कर भस्म हो गया।
इस तरह दोनों राक्षसों का वध करके अगस्त्य आदि मुनियों से प्रार्थना की कि मुनिवरों! टब मैं कौन सा काम सिद्ध करुं। मुनि बड़े प्रसन्न हुए और शनि को मनोनुकूल वर देना चाहा। तब शनि ने कहा कि हे मुनिवरो! यदि आप प्रसन्न होकर वर देना चाहते हैं तो यह वर दें कि शनिवार के दिन जो मनुष्य नियमपूर्वक अश्वत्थ का स्पर्श करेंगे, उनके कार्यों की सिद्धि हो और मेरे द्वारा प्रदत पीड़ा से ग्रस्त न हों। जो मनुष्य अश्वत्थ तीर्थ में स्नान करें, उनके सभी मनोरथ पूर्ण हों।
तभी से उस तीर्थ, अश्वत्थ तीर्थ, भी कहा जाता है। उस तीर्थ में अगस्त्य, याज्ञिक, सामग, सात्रिक आदि सोलह हजार एक सौ आठ तीर्थ वास करते हैं। उन तीर्थों में स्नान-दान करने से संपूर्ण यज्ञों का फल मिलता है।
शनिदेव के तीन प्रमुख सिद्ध हैं, जहां शनि की आराधना करने से शीघ्र फल प्रापित होती है। ये हैं- शिगलापुर (महाराष्ट्र) , कोकिला, वन (वृदान्त), ग्वालियर , गोमती के तट पर।
शिगलापुर-कहा जाता है कि यहां शनिदेव स्वंय प्रगट हुए थे। इस सिद्ध पीठ पूजन, शनि को तेल से स्नान कराने व दर्शन करने से शनि प्रकोप शीघ्र दूर होता है। यहां के लोगों में शनि के प्रति अगाध श्रद्धा है। यहां शनि प्रभाव से असामाजिक तत्वों के प्रयास विफल होते हैं। यही कारण है कि लोग घरों में तेल तक नहीं लगाते।
वृंदावन-वृंदावन सिथत कोकिला वन में भी शनि का सिद्धपीठ है। कहते हैं कि यहां भगवान श्रीकृष्ण ने शनि को दर्शन देकर आर्शीवाद दिया था कि जो कोर्इ इस कोकिला वन की प्रदक्षिणा करेगा व शनि का पूजन करेगा, उसको शनि पीड़ा से त्रस्त नहीं पड़ेगा। यह वन नंदगांव के निकट है। इस सिद्धपीठ पर प्रत्येक शनिवार को मेला भी लगता है। यहां शनि के बीजमंत्र का जाप करने से फल प्रापित शीघ्र होती है।
ग्वालियर – यहां शनिश्चरा मंदिर के पीठ है। कहा जाता है कि यह मंदिर एक पहाड़ी पर है जिसे पूर्वकाल में हनुमानजी ने लंका से फेंका था। यहां शनिवार को पड़ने वाली अमावस्या को भारी मेला सगता है। यहां आने वाले श्रद्धालुजन पहने हुए कपड़े-और जूते बहीं छोड़ जाते है। और नूतन वस्त्र-जूते पहनकर जाते है। इसके पीछे ऐसी मान्यता है कि पुराने जूते -वस्त्र छोड़ने से दरिद्रता व सब प्रकार के प्रकार के क्लेश दूर हो जाते हैं। यहां शनिदेव की पूजा करने से फल प्रापित शीघ्र होती है।
गोमती किनारे- गोमती नदी के तट पर बना शनि मंदिर भी सिद्ध पीठ की पीठ की श्रेणी में आता है। यहां शनि पूजन, दर्शन कर शनि का बीजमंत्र वैदिक जपने व दशरथ कृत शनि स्त्रोत का पाठ करने, दान देने से शनि प्रकोप दूर होकर कार्यों की सिद्धि होती है।