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देवदत्त पट्टनायक3 घंटे पहले
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: लापिस लाजुली नामक कीमती पत्थर से निर्मित एक कृति, जो मेसोपोटामिया में मिली थी।
कल्पना कीजिए कि आप 5,000 वर्ष पूर्व की मिस्र और मेसोपोटामिया सभ्यताओं (आज के इराक क्षेत्र) में पहुंचे हैं। वहां आपको देवी-देवताओं की मूर्तियां विशेष रूप से आकर्षक प्रतीत होंगी। उनके बाल, भौंहें और आंखें एक दमकते हुए नीले रंग में उकेरे गए हैं। इस गहन नीले रंग के पास अक्सर सोने या तांबे का भी प्रयोग हुआ है। यह विलक्षण नीला रंग दरअसल लापिस लाजुली नामक पत्थर से आता है, जिसे मूर्तियों में जड़कर सजाया गया है। लापिस लाजुली न तो मिस्र में पाया जाता था और न ही मेसोपोटामिया में। यह दुर्लभ पत्थर हजारों मील दूर, आधुनिक अफगानिस्तान की पहाड़ियों में पाया जाता था। तो प्रश्न यह उठता है कि हजारों वर्ष पहले, जब परिवहन के आधुनिक साधन नहीं थे, तब यह कीमती पत्थर अफगानिस्तान से फारस के पठार को पार करते हुए पहले मेसोपोटामिया और फिर वहां से मिस्र तक कैसे पहुंचा?
इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के निरंतर प्रयासों से यह स्पष्ट हुआ है कि उस समय लापिस लाजुली केवल विलासिता की वस्तु नहीं था, बल्कि इसे दिव्यता और पवित्रता से जोड़ा जाता था। प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया के लोगों का विश्वास था कि मंदिरों में स्थापित देवी-देवताओं की मूर्तियों में प्राण फूंके जा सकते हैं, परंतु ऐसा तभी संभव है जब वे मूर्तियां दूरस्थ और विशिष्ट क्षेत्रों, जैसे अफगानिस्तान और भारत से लाए गए दुर्लभ और मूल्यवान पदार्थों से बनाई जाएं।
यही धार्मिक और सांस्कृतिक मांग उन प्राचीन व्यापार मार्गों के निर्माण का कारण बनी, जिन्होंने इन सभ्यताओं को आपस में जोड़ा। इन मार्गों ने मिस्र को लेवांत (आज का इजराइल) और मेसोपोटामिया से जोड़ा और वहां से आगे ये मार्ग धातुओं से भरपूर तुर्की के पर्वतीय क्षेत्रों तक पहुंचते थे। फिर व्यापारी फारस की खाड़ी के समुद्रतट तक जाते और समुद्री मार्ग से सिंधु नदी के मुहाने तक पहुंचते थे । अफगानिस्तान की पहाड़ियों में पाए जाने वाले कच्चे लापिस लाजुली को पहले सिंधु नदी के रास्ते हड़प्पा सभ्यता के नगरों तक पहुंचाया जाता था। वहां इस पत्थर से सुंदर और चमकीले मनके बनाए जाते थे। ये मनके फिर समुद्री मार्ग से मेसोपोटामिया ले जाए जाते और वहां से मिस्र तक पहुंचते थे। अंततः मिस्र में विशेष अनुष्ठानों द्वारा इन नीले पत्थरों को मूर्तियों में जड़कर उन्हें पवित्र बनाया जाता था।
इस प्रकार पवित्रता हड़प्पा से होती हुई मेसोपोटामिया तक पहुंचती थी। ये पवित्र पत्थर अफगानिस्तान से शुरू होकर आज के पाकिस्तान के समुद्र तट से होकर मेसोपोटामिया तक पहुंचने वाले मार्गों से ले जाए गए। यह मार्ग केवल व्यापारिक लेन-देन के लिए नहीं बना था, बल्कि इसका एक गहन धार्मिक और सांस्कृतिक उद्देश्य भी था। पहले इतिहासकार मानते थे कि ये मार्ग केवल व्यापार और विलासिता की वस्तुओं की मांग को पूरा करने के लिए विकसित हुए थे। लेकिन अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि पवित्र माने जाने वाले दुर्लभ पदार्थों की तलाश और उन्हें अपने देवताओं तक पहुंचाने की इच्छा भी इन व्यापार मार्गों के निर्माण का एक महत्वपूर्ण कारण रही।
हड़प्पा की सभ्यता की विशेषता यह थी कि वहां पवित्रता की अवधारणा किसी बाहरी, दुर्लभ वस्तु के संचय से नहीं, बल्कि इसके विपरीतस्थानीय परंपराओं पर आधारित थी। इस सभ्यता ने बाहरी प्रभावों को नकारा। यद्यपि हड़प्पा का मेसोपोटामिया के साथ व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध था, फिर भी उसने न तो वहां की क्यूनिफॉर्म लिपि अपनाई और न ही मेसोपोटामिया की तरह विशाल स्मारक या समाधियां बनाई। इससे यह स्पष्ट होता है कि हड़प्पा एक ऐसी परिपक्व और आत्मनिर्भर सभ्यता थी, जिसने अपने पवित्र प्रतीकों को बाहरी भव्यता से नहीं, बल्कि अपनी विशिष्टता और सांस्कृतिक मूल्य प्रणाली से परिभाषित किया।
यह तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आता है कि हड़प्पा में जितना आयात हुआ, उससे कहीं अधिक वस्तुएं वहां से निर्यात की गईं। हड़प्पा द्वारा आयात की गई अधिकांश सामग्री खाद्य पदार्थों की थीं, ऐसी वस्तुएं जिनका उसके सांस्कृतिक जीवन पर कोई गहरा प्रभाव नहीं पड़ा। इसका एक महत्वपूर्ण प्रमाण यह है कि हड़प्पा की मुहरें मेसोपोटामिया में बड़ी संख्या में पाई गई हैं, जबकि मेसोपोटामिया की कोई भी मुहर हड़प्पा में अब तक नहीं मिली है। इसका संकेत है कि हड़प्पावासी ऊन, डामर जैसी कुछ विशेष वस्तुओं का आयात तो करते थे, लेकिन विचारों, प्रतीकों या सांस्कृतिक अवधारणाओं का लेन-देन करने में उनकी रुचि नहीं थी। उन्होंने जानबूझकर अपने आप को बाहरी प्रभावों से अलग रखा, जैसे संन्यासी करते हैं।
यह प्रवृत्ति केवल हड़प्पा तक सीमित नहीं रही। भारत के सांस्कृतिक इतिहास में हम देखते हैं कि सत्ता का आधार अक्सर संपत्ति के संचय पर नहीं, बल्कि संपत्ति के त्याग पर रहा है। इसलिए यहां संन्यासियों को, जिन्होंने सांसारिक सुखों को नकारा, धार्मिक संस्थानों के प्रमुखों से भी अधिक प्रभाव प्राप्त हुआ। हड़प्पा के नगरों में लापिस लाजुली का स्थानीय रूप से उपयोग न होते हुए भी उसका बड़े पैमाने पर निर्यात होना इसी विचारधारा को पुष्ट करता है।
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