Children learn better when taught in their mother tongue | मातृभाषा में पढ़ाने से बेहतर सीखते हैं बच्चे: दुनिया में 40% बच्चों को बोलने-समझने वाली भाषा में शिक्षा नहीं; UNESCO की रिपोर्ट


35 मिनट पहले

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जो भाषा बच्चे घर पर बोलते हैं, उसी भाषा में अगर उन्हें पढ़ाया जाए तो वो बेहतर सीखते हैं। वहीं अगर बच्चों को किसी दूसरी भाषा में पढ़ाना शुरू किया जाए तो इससे वो हीन-भावना से ग्रसित हो सकते हैं और इससे लर्निंग गैप भी बढ़ता है। ये कहना है UNESCO की हाल ही में जारी ‘लैंग्वेज मैटर- ग्लोबल गाइडेंस ऑन मल्टीलिंग्वल एजुकेशन’ रिपोर्ट का।

रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में 40% बच्चों और युवाओं के पास उनकी मदर-टंग में पढ़ने की सुविधा नहीं है। यही वजह है कि दुनिया के कई हिस्सों में बच्चे स्कूल तो जा रहे हैं लेकिन वो सिंपल टेक्स्ट नहीं पढ़ पाते और सिंपल मैथ्स सॉल्व नहीं कर पाते।

साल 2016 में 617 मिलियन बच्चे फाउंडेशनल लिट्रेसी और न्यूमरेसी नहीं सीख रहे थे। इनमें से दो तिहाई स्कूल जाते थे। कोविड महामारी से पहले लो और मिडल इनकम देशों के 57% 10-वर्षीय-बच्चे सिंपल टेक्स्ट नहीं पढ़ पा रहे थे। ये आंकड़ा कोविड महामारी के बाद 70% हो गया।

ये सभी फाइंडिंग्स UNESCO की ‘लैंग्वेज मैटर्स- ग्लोबल गाइडेंस ऑन मल्टीलिंग्वल गाइडेंस’ में सामने आई हैं।

राजस्थान के डुंगरपुर में नजर आया बेहतर रिजल्ट

राजस्थान के डुंगरपुर जिले में गुजरात में बोली जाने वाली वागड़ी भाषा काफी बोली जाती हैं। साल 2019 में यहां टीचर्स ने बच्चों को वागड़ी भाषा में ही पढ़ाना शुरु किया।

इसके कुछ दिन बाद जब बच्चों का असेसमेंट लिया गया तो सामने आया कि उनकी रीडिंग स्किल्स पहले से काफी बेहतर थी। यूरोप और अफ्रीका में भी ऐसे ही नतीजे सामने आए हैं। इसके अलावा मातृभाषा में अगर बच्चे को बेसिक एजुकेशन दी जाए तो उसके लिए दूसरी भाषाएं सीखनी भी आसान हो जाती हैं। इसी के साथ 6 से 8 साल की उम्र में मातृभाषा में पढ़ाई करने वाले बच्चे ऑफिशियल लैंग्वेज में पढ़ने वाले बच्चों से बेहतर परफॉर्म करते हैं।

टॉप 10 सबसे ज्यादा भाषा बोलने वाले देशों में भारत चौथे स्थान पर

UNSCO की वर्ल्ड एटलैस ऑफ लैंग्वेजेस के मुताबिक दुनियाभर में 8,324 भाषाएं सरकारों ने डॉक्यूमेंट की हैं। वर्तमान में इनमें से 7,000 भाषाएं इस्तेमाल की जाती हैं।

देश में NEP के जरिए लाए 3 लैंग्वेज पॉलिसी

नेशनल एजुकेशन पॉलिसी यानी NEP 2020 के तहत स्टूडेंट्स को 3 भाषाएं सीखनी होंगी, लेकिन किसी भाषा को अनिवार्य नहीं किया गया है। राज्यों और स्कूलों को यह तय करने की आजादी है कि वो कौन-सी 3 भाषाएं पढ़ाना चाहते हैं।

प्राइमरी क्लासेस (क्लास 1 से 5 तक) में पढ़ाई मातृभाषा या स्थानीय भाषा में करने की सिफारिश की गई है। वहीं, मिडिल क्लासेस (क्लास 6 से 10 तक) में 3 भाषाओं की पढ़ाई करना अनिवार्य है। गैर-हिंदी भाषी राज्य में यह अंग्रेजी या एक आधुनिक भारतीय भाषा होगी। सेकेंड्री सेक्शन यानी 11वीं और 12वीं में स्कूल चाहे तो विदेशी भाषा भी विकल्प के तौर पर दे सकेंगे।

देश में भाषाओं पर छिड़ी बहस

राष्‍ट्रीय शिक्षा नीति कि तहत स्‍कूलों में 3 भाषाएं पढ़ाने के नियम पर केंद्र सरकार और तमिलनाडु सरकार में घमासान छिड़ा है। 16 फरवरी, 2025 को तमिलनाडु के सीएम एम.के. स्टालिन ने 3 लैंग्वेज पॉलिसी लागू न करने के चलते केंद्र पर ब्लैकमेलिंग और धमकी देने का आरोप लगाया था। साथ ही हिंदी भाषा थोपने और फंड जारी न किए जाने का आरोप लगाया था।

इसके जवाब में केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने 17 फरवरी, 2025 को कहा कि केंद्र सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP), 2020 को लागू करने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है।

तमिलनाडु में हिंदी विरोध का इतिहास 85 साल पुराना

1937 में ब्रिटिश शासन के दौरान मद्रास प्रेसिडेंसी (अब तमिलनाडु) में हिंदी को स्कूलों में अनिवार्य करने की कोशिश हुई थी, जिसे व्यापक विरोध झेलना पड़ा। इस आंदोलन की अगुवाई द्रविड़ कड़गम (Dravidar Kazhagam) और बाद में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम यानी DMK ने की थी। विरोध इतना मजबूत था कि 1940 में हिंदी को स्कूलों से हटाना पड़ा।

इसी तरह साल 1965 जब केंद्र सरकार ने हिंदी को देश की एकमात्र आधिकारिक भाषा बनाने की योजना बनाई, तो तमिलनाडु में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों के दौरान कई छात्रों की जान चली गई और आंदोलन ने पूरे राज्य को झकझोर दिया। इसके बाद, केंद्र सरकार को पीछे हटना पड़ा और अंग्रेजी को हिंदी के साथ सह-आधिकारिक भाषा के रूप में बनाए रखा गया।

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