गौरव पाठक1 घंटे पहले
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पूर्व में मौजूद बीमारियों (प्री-एग्जीस्टिंग डीसीज) का खुलासा न किया जाना जीवन बीमा संबंधी दावों को खारिज किए जाने के सबसे आम कारणों में से एक है। हालांकि, उपभोक्ता फोरम बार-बार यह स्पष्ट कर चुके हैं कि ऐसे मामलों में दावे को अस्वीकृत किया जाना पूरी तरह कानूनी प्रावधानों के अनुरूप होना चाहिए और साथ ही इसके समर्थन में ठोस कानूनी प्रमाण भी होने चाहिए। आइए इस पूरे मसले को विस्तार से समझते हैं।
लीगल फ्रेमवर्क: गुड फेथ और धारा 45 बीमा अनुबंध ‘परम सद्भावना’ (यानी ‘गुड फेथ’) के सिद्धांत पर आधारित होते हैं। पॉलिसीधारकों को अपने शरीर से जुड़े सभी महत्वपूर्ण तथ्यों का खुलासा करना आवश्यक होता है, जिनमें ज्ञात बीमारियां शामिल हैं। हालांकि बीमा अधिनियम 1938 की धारा 45 बीमा कंपनी की उस क्षमता को सीमित करती है, जिसके तहत वह दावे को अस्वीकार कर सकती है। भारतीय जीवन बीमा निगम बनाम पी. सिंधु नायर (2024) मामले में ओडिशा राज्य आयोग ने कहा, ‘बीमा अधिनियम की धारा 45 से स्पष्ट है कि पॉलिसी शुरू होने के दो वर्ष बाद किसी अन्य आधार पर दावे को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता।’
साक्ष्य जुटाने का दायित्व कंपनी का उपभोक्ता अदालतों ने कई बार यह स्पष्ट किया है कि इंश्योरर या बीमाकर्ता (बीमा कंपनी) के लिए केवल यह सामान्य आरोप लगाना पर्याप्त नहीं है कि बीमाधारक ने अपनी बीमारी का खुलासा नहीं किया। पीएनबीमेटलाइफ इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम बनाम बिनापानी बिस्वास (2025) मामले में राष्ट्रीय आयोग ने कहा, ‘(बीमाधारक को) डायबिटीज और हाई बीपी होने का केवल दावा करने भर से यह सिद्ध नहीं हो जाता कि जानकारी छिपाई गई। बीमा कंपनी यह साबित करने में असफल रही कि बीमारी संबंधी किसी महत्वपूर्ण तथ्य को छिपाया गया।’ इसी तरह रिलायंस निप्पॉन लाइफ इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम सुरेंद्र कुमार (2024) मामले में भी दावे को खारिज करना गलत ठहराया गया, क्योंकि इस बात का ‘कोई प्रमाण नहीं था’ कि मृतक डायबिटीज या पैरालिसिस (पक्षाघात) से पीड़ित था। राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग ने कहा कि यदि मृतक को पक्षाघात था, तो बीमा कंपनी के डॉक्टरों द्वारा अनिवार्य मेडिकल परीक्षण के दौरान इस पर गौर क्यों नहीं किया गया?
छिपाई गई जानकारी की प्रकृति गंभीर हो अगर बीमाधारक ने कोई जानकारी छिपाई तो उसकी प्रकृति गंभीर होनी चाहिए या वो उस तरह की होनी चाहिए जो जोखिम से सीधे संबंधित है। दिनेश प्रकाश बनाम केयर हेल्थ इंश्योरेंस लिमिटेड (2024) मामले में 96,869 अमेरिकी डॉलर के यात्रा बीमा दावे को इसलिए खारिज कर दिया गया, क्योंकि बीमा कंपनी ने दावा किया कि थायरॉइड और गठिया की जानकारी छुपाई गई थी। उत्तर प्रदेश राज्य आयोग ने बीमा कंपनी के तर्कों को खारिज करते हुए कहा: ‘यह सिद्ध नहीं होता कि बीमित व्यक्ति ने जानबूझकर उक्त बीमारियों को छिपाया। ऐसा कोई दस्तावेज भी नहीं है, जिससे यह साबित हो कि बीमारियों का पहले से पता चल गया था या उनका उपचार किया जा रहा है। यह भी प्रमाणित नहीं होता है कि ये जानलेवा बीमारियां थीं, जिनकी जानकारी छुपाना दावे को अस्वीकार करने का वैध आधार हो सकता है।’ बीमा कंपनी को पूरी दावा राशि देने के साथ-साथ मानसिक पीड़ा पहुंचाने के तौर पर ₹5 लाख रुपए और मुकदमे की लागत के तौर पर ₹50 हजार रुपए भी चुकाने के निर्देश दिए गए।
जानकारी छिपाई गई, यह साबित होने पर… अगर यह साबित हो जाए कि गंभीर बीमारियों को जानबूझकर छिपाया गया, तो ऐसे मामलों मंे दावा खारिज करने को सही भी ठहराया गया। अब्दुल मन्नान बनाम एलआईसी ऑफ इंडिया (2024) मामले में राष्ट्रीय आयोग ने पाया कि मृतक ने पॉलिसी लेने से पहले एक प्रतिष्ठित अस्पताल में डायबिटीज का इलाज करवाया था, लेकिन इस तथ्य को उसने बीमा फॉर्म में उजागर नहीं किया।
तीन वर्षों के भीतर मृत्यु और जांच का अधिकार यदि पॉलिसी जारी होने की तिथि से तीन वर्षों के भीतर बीमित व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तो बीमाकर्ता को बीमा अधिनियम, 1938 की धारा 45 के तहत विस्तृत जांच कराने का अधिकार होता है। संजय टाटा बनाम एसबीआई लाइफ इंश्योरेंस कं. लि. (2025) मामले में आयोग ने माना कि अगर पॉलिसी जारी होने के तीन वर्षों के भीतर मृत्यु हुई हो तो दावा जांचने के लिए बीमा कंपनी द्वारा जांचकर्ता नियुक्त करना अनुचित नहीं माना जा सकता। जांचकर्ता की रिपोर्ट अवैध या गलत थी, यह साबित करने की जिम्मेदारी शिकायतकर्ता की थी। चूंकि वह ऐसा नहीं कर सका, इसलिए दावा अस्वीकार करने के बीमा कंपनी के फैसले को सही ठहराया गया।
ध्यान रखें ये बातें – उपभोक्ताओं या बीमाधारकों को बीमा लेने से पहले सभी ज्ञात चिकित्सकीय स्थितियों की जानकारी देना अनिवार्य है, चाहे वे मामूली ही क्यों न प्रतीत हों। – बीमा कंपनियां केवल संदेह या छोटी-मोटी बीमारियों के आधार पर दावा खारिज नहीं कर सकतीं। दावा अस्वीकार करने का निर्णय ठोस प्रमाणों पर आधारित होना चाहिए और यह साबित होना चाहिए कि जानकारी जानबूझकर और महत्वपूर्ण रूप से छिपाई गई थी। – यदि बीमा कंपनी का निर्णय मनमाना या आधारहीन हो, तो मृतक के परिजन उपभोक्ता आयोगों का रुख कर सकते हैं। (लेखक सीएएससी के सचिव भी हैं।)