नौ दिनी आराधना का पर्व नवरात्रि रविवार से प्रारंभ हो गया। इस मौके पर दैनिक भास्कर ने प्रदेश के उन खास मंदिरों की जानकारी जुटाई है, जहां न केवल नवरात्रि बल्कि साल भर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।
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मैहर में विराजित मां शारदा मंदिर में प्रतिदिन पट खुलने के पहले ही पूजा और श्रृंगार हो जाता है। देवास में मां चामुंडा और तुलजा भवानी में उलटा स्वास्तिक बनाकर मनोकामना मांगते हैं। नीमच की भादवा माता को आरोग्य तीर्थ भी कहते हैं। मान्यता है कि यहां मौजूदा प्राचीन बावड़ी के जल से लकवा, मिर्गी जैसे असाध्य रोगों से मुक्ति मिलती है।
आइए जानते हैं, प्रदेश के इन खास मंदिरों में चैत्र नवरात्रि के दौरान कैसी रहेगी पूजन-दर्शन की व्यवस्था…

मंदिर की खासियत : नवरात्रि पर मेला लगता है। सालभर यहां एमपी समेत देशभर के श्रद्धालु बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। मान्यता है कि मंदिर में दर्शन मात्र से भक्तों की मनोकामना पूर्ण हो जाती है। मंदिर के कपाट बंद होते ही रहस्यमयी आवाजें आती हैं और मंदिर खुलने से पहले ही पूजा हो जाती है।
मंदिर का इतिहास : मैहर माता मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है। कहा जाता है कि इसी स्थान पर मां सती का हार गिरा था इसलिए मईया का हार यानी मैहर के नाम से जाना जाता है। प्रतिमा के बारे में मान्यता है कि ये करीब 1500 साल पुरानी है। इस मंदिर को लेकर श्रद्धा, रहस्य और पौराणिक मान्यताएं जुड़ी हैं। (पुजारी पवन दाऊ महाराज के अनुसार )

मंदिर की खासियत: यहां नवरात्रि के नौ दिन तक पन्ना जिले सहित आसपास के जिलों के लोग दर्शन करने आते हैं। पद्मावती देवी मंदिर का इतिहास बहुत गहरा है। जो इस क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत से जुड़ा हुआ है। मंदिर का निर्माण देवी पद्मावती के सम्मान में किया गया था। जो अपनी दयालुता और कृपा के लिए जानी जाती हैं। मंदिर की वास्तुकला ऐतिहासिक शैलियों के मिश्रण को दर्शाती है।
मंदिर का इतिहास: इस मंदिर को लेकर मान्यता है कि प्राचीन गोंडवाना साम्राज्य के समय इस क्षेत्र के पद्मावत नाम के राजा हुआ करते थे। जो माता आदिशक्ति सती के बहुत बड़े उपासक थे। उन्होंने अपनी आराध्य देवी मां दुर्गा को पद्मावती नाम से प्रसिद्ध इस प्राचीन मंदिर में स्थापित किया था। कालांतर में पन्ना का नाम इसी मंदिर के नाम से पद्मावतीपुरी हुआ करता था। जो बाद में पुराना पन्ना और वर्तमान में पन्ना के नाम से पहचाना जाता है। पद्मावती देवी मंदिर का इतिहास उल्लेख भविष्य पुराण और विष्णु पुराण में भी है। ये मंदिर गौड राजाओं का आराध्यस्थल भी हुआ करता था। (पुजारी योगेंद्र शुक्ला के अनुसार)

खासियत: चांदी के सिंहासन पर माता विराजमान हैं, नीचे नवदुर्गा बैठी हैं और अखंड ज्योत जलती हैं। लकवा चर्म रोग जैसी कई असाध्याय बीमारियां यहां ठीक होती हैं। देश और दुनिया से लोग यहां दर्शन कर रोगों से मुक्ति पाने के लिए आते हैं।
मंदिर का इतिहास: मान्यता है कि भील के पूर्वज रूपाजी को सपने में आकर माता ने दर्शन दिए और कहा कि में आरणी वृक्ष की मूल में हूं, निकाल कर स्थापना कर। स्वप्न अनुसार रूपाजी ने उन्हें बाहर निकाल कर स्थापित किया। बाद में मेवाड़ के महाराणा मोकल को माता के चमत्कार के बारे पता चला तो वे भादवा आए और उन्होंने संवत् 1482 मे भीलों को पुजा का अधिकार दिया था। आज भी मंदिर के पुजारी उसी भील परिवार के हैं। (पुजारी अर्जुन पंडित के अनुसार)

मंदिर की खासियत : विंध्याचल पर्वत की 800 फीट ऊंचाई पर बने मंदिर के गर्भगृह में विजयासन माता की स्वयंभू प्रतिमा है। मंदिर परिसर में देवी लक्ष्मी, सरस्वती और भैरव के मंदिर भी हैं।
मंदिर का इतिहास: मान्यता है कि मां दुर्गा ने महिषासुर मर्दिनी अवतार के रूप में यहां रक्तबीज नाम के राक्षस का वध किया था। फिर जगत कल्याण के लिए इसी स्थान पर बैठकर उन्होंने विजयी मुद्रा में तपस्या की थी। इसी वजह से यहां के मंदिर में विजयासन देवी विराजती हैं। सलकनपुर मंदिर आस्था और श्रद्धा का 52वां शक्तिपीठ माना जाता है।
मां विजयासन धाम तक पहुंचने के 3 विकल्प
- सीढ़ी: पैदल यात्री एक हजार 450 सीढ़ियां चढ़कर जा सकते हैं।
- सड़क मार्ग: प्राइवेट वाहन मुख्य मार्ग से मंदिर तक ले जाने पर प्रतिबंधित हैं। अनुबंधित वाहन से चार किमी पहाड़ी वाले सड़क मार्ग से पहुंचा जा सकता है। प्रति यात्री 60 रुपए किराया निर्धारित है। दर्शन के बाद श्रद्धालु किसी भी टैक्सी से वापस आ सकेंगे। 100 से ज्यादा प्राइवेट टैक्सी को अनुबंधित किया गया है।
- रोप-वेः सुबह 8 से रात 11 बजे तक चालू रहेगा। 120 रुपए प्रति व्यक्ति किराया है। सामान्य दिनों में सुबह 8 से शाम 5 बजे तक चालू रहता है। (ट्रस्ट अध्यक्ष महेश उपाध्याय के अनुसार)

खासियत : हरसिद्धि मंदिर में 2000 साल पुराने 51 फीट ऊंचे दो दीप स्तंभ हैं। इसमें 1011 दीपक हैं। दीयों को शाम की आरती से पहले 6 लोग 5 मिनट में प्रज्ज्वलित कर देते हैं। पूरा मंदिर रोशनी से जगमग हो उठता है। मंदिर में चार प्रवेश द्वार हैं।
मंदिर का इतिहास : सप्त सागर में से एक रूद्र सागर के तट पर बना मंदिर 2000 साल से भी ज्यादा पुराना है। उज्जैन ही एकमात्र स्थान है, जहां ज्योर्तिलिंग के साथ शक्ति पीठ भी है। इसे शिव और शक्ति के मिलन के रूप में भी देखा जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार सती के शरीर के 51 टुकड़ों में से यहां माता की कोहनी गिरी थी। (पुजारी लालागिरी के अनुसार)

मंदिर की खासियत : नवरात्रि के समय देशभर से श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं। नवरात्रि के दौरान निशुल्क भंडारा संचालित होता है। त्रिशक्ति के रूप में यहां मां बगलामुखी, सरस्वती और मां लक्ष्मी विराजित है। मंदिर लखुंदर नदी के किनारे होकर चारों और से श्मशान से घिरा हुआ है, इसलिए यहां तांत्रिक क्रियाओं और सिद्धि प्राप्ति का काफी महत्व है।
मंदिर का इतिहास : मान्यता है कि यह मंदिर पांडव कालीन है और अज्ञातवास के दौरान यहां पांडवों ने साधना कर शक्तियां प्राप्त की थीं। प्रतिमा की स्थापना का यहां कोई प्रमाण मौजूद नहीं है। बताया जाता है कि प्रतिमा स्वयं भू है। मंदिर प्रांगण में राधाकृष्ण, भैरव और महावीर हनुमान की आकर्षक प्रतिमाएं हैं। यहां श्रद्धालु दूर दराज के क्षेत्रों से अपनी मनोकामनाएं लेकर आते हैं, वैसे तो वर्षभर हवन किए जाते हैं, लेकिन यहां नवरात्र में 9 दिनों तक विशेष हवन अनुष्ठान भी किए जाते हैं। (पुजारी मनोहर पंडा के अनुसार)

मंदिर की खासियत : माता की स्थापना सन् 1935 में स्वामीजी महाराज ने की थी। मां पीतांबरा को राजसत्ता और ईश्वर की देवी माना जाता है। सत्ता सुख की प्राप्ति के लिए देशभर के नेता माता के दर्शन के लिए पहुंचते हैं। पीठ पर हर नवरात्र पर जप यज्ञ होता है। जिस में पीठ के सैकड़ों साधक और आम श्रद्धालु शामिल होते हैं।
मंदिर का इतिहास : सिद्धपीठ की स्थापना 1935 में स्वामीजी के द्वारा की गई। ये चमत्कारी धाम स्वामीजी के जप और तप के कारण ही एक सिद्ध पीठ के रूप में जाना जाता है। भक्तों को मां के दर्शन एक छोटी सी खिड़की से ही होते हैं। मंदिर प्रांगण में स्थित वनखंडेश्वर महादेव शिवलिंग को महाभारत काल का बताया जाता है। (व्यवस्थापक महेश दुबे)

मंदिर की खासियत: बड़ी माता तुलजा भवानी व छोटी माता चामुंडा रानी भक्तों को 3 स्वरूप में दर्शन देती है। सुबह बाल स्वरूप, दोपहर में युवावस्था, रात में वृद्धावस्था में मां के दर्शन यहां भक्तों को होते हैं। भक्त यहां उल्टा स्वास्तिक बनाते हैं। संतान प्राप्ति के लिए मां को पान का बीड़ा खिलाया जाता है।
मंदिर का इतिहास: देवास की माता टेकरी नाथ संप्रदाय का सिद्ध स्थल है और कई ऋषि-मुनियों की तपोस्थली भी रहा है। देवास शहर का इतिहास एक हजार वर्ष पुराना बताया जाता है, टेकरी पर मां चामुंडा देवी की मूर्ति 10वीं शताब्दी की बताई जाती है। (बड़ी माता पुजारी मुकेश नाथ, छोटी माता पुजारी सुरेश नाथ के अनुसार)
इनपुट : देवास से अशोक पटेल, दतिया से राधावल्लभ मिश्रा, आगर मालवा से मनीष कुमार मारू, उज्जैन से आनंद निगम, नर्मदापुरम से धर्मेंद्र दीवान, नीचम से विजित राव महाडिक, पन्ना से गणेश विश्वकर्मा, मैहर से प्रशांत द्विवेदी।