गुणवंत शाह10 मिनट पहले
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यह दौर तकनीक का है। हर क्षेत्र में नई-नई तकनीकें आ रही हैं। मगर सवाल यह है कि तकनीक का उपयोग करने वाला इंसान क्या सच्चे अर्थों में सुखी हो पाया है? तकनीक अब ‘सुविधाओं की तकनीक’ बनती जा रही है। विडंबना यह है कि कई बार तकनीक से मिलने वाली सुविधाओं का उपभोग करने वाले आदर्शवादी लोग भी पर्यावरण के नाम पर उसी तकनीक की आलोचना करते हैं। विज्ञान के सारे आविष्कार मानो सुविधा की यात्रा के समानांतर चलते रहे हैं। पर्यावरण की रक्षा भी तकनीक के मार्ग पर ही हो सकती है। एल्विन टॉफलर ने इसे जिम्मेदार तकनीक निरुपित किया है। हर व्यक्ति को यह याद रखना चाहिए कि तात्कालिक सुख और स्थायी सुख में अंतर होता है। पेनकिलर, क्लोरोफार्म या एसी जैसी चीजों की खोज के लिए हमें खोजकर्ताओं का आभारी होना चाहिए, सुविधाओं से द्वेष नहीं होना चाहिए, मगर उन्हीं सुविधाओं में अटक भी नहीं जाना चाहिए।
अल्फ्रेड नॉर्थ ने सही कहा है- हमारे विचार जीवन की आपाधापी में तुच्छ बन जाए, इसके पहले उसे उचित सम्मान दो। जापान के ओसाका के पास कोबे नाम का शहर है। वहां एक बुजुर्ग बड़े खुश नजर आ रहे थे और शराब के प्याले को देख रहे थे। मैंने उनसे पूछा, मजे में हो तो उनका जवाब था : ‘मैं अपने सुख के क्षणों को लम्बा कर रहा हूं।’ यह सुनकर मैं हतप्रभ रह गया। सुख का स्वभाव तो क्षणिक होता है। शराब का नशा तो इंसान को सातवें आसमान में पहुंचा देता है। नशा उतर जाए तो सातवें आसमान में पहुंचा इंसान धड़ाम से जमीन पर गिरता है। सुख चाहे जितना भी लम्बा हो जाए, एक न एक दिन वह खत्म हो ही जाता है। इसी सोच की चाहत में मानव जाति ‘शाश्वत सुख’ की तलाश में निकल पड़ी।
सुख की चाहत हर इंसान को सुख की चाहत होती है। इसकी तलाश वह जीवनभर करता ही रहता है। इसे पाने की चाहत में जिसने अध्यात्म का मार्ग चुना, उसे क्षणिक और शाश्वत सुख में अंतर की पहचान अवश्य हुई होगी। इस विषय पर उसके भीतर विचारों का मंथन भी हुआ होगा। जब भी विचारों का जबरदस्त मंथन होता है, तब कुछ मूल्यवान हासिल होता है। जब इंसान सुख की खोज में उलझनों का हल तलाश लेता है, तभी उसे शाश्वत सुख का रास्ता मिलता है। फ्रेडरिक नीत्शे ने सच कहा है, आपके भीतर यदि कोई उथल-पुथल नहीं है, तो आप किसी नाचते हुए सितारे को जन्म नहीं दे सकते। ऐसा रोज होता है। सुख की तलाश में हमारी आत्मा से जैसे कोई चींटी निकलती है, उस चींटी के पास कुछ तो ऐसा होता है, जिसे हम दिशा सूचक यंत्र भी कह सकते हैं। इसकी मदद से ही चींटी लगातार उस दिशा में आगे बढ़ती रहती है, जहां उसे अपने लिए दाना मिल जाए। एक लम्बी दूरी तय कर वह हमारे किचन तक आ जाती है, जहां शक्कर के दाने बिखरे हुए होते हैं। चींटी की तरह हर प्राणी सुख की तलाश में है। इसी तरह इंसान भी सुख की तलाश में ही लगा रहता है। चींटी और इंसान दोनों को ही सुख की तलाश है। दोनों में एक अंतर तो है। इंसान सवाल करता है कि आखिर सुख है क्या? हर कोई सुख की चाहत रखता है, लेकिन सुख को पहचानना और समझना बहुत ही मुश्किल है।
देने का सुख मानव ने जब से विकास करना प्रारंभ किया है, सुख की तलाश तभी से जारी है। सुख के तलाश की यह यात्रा जंगल से बाग तक, कुएं से टैंक तक और कुदाली से कंप्यूटर तक पहुंची है। अपने बच्चे के लिए मां रात भर जागती है, लेकिन इससे वह कदापि दुखी नहीं होती। बस में यदि एक युवा किसी बुजुर्ग को अपनी सीट दे देता है, तो वह दुखी नहीं होता। पिता की आज्ञा का पालन करने राम जब वन को गए, तब भी वे दुखी नहीं हुए। सुख से संबंधित भौतिक चीजों से बचना होगा, इससे सुख की सूक्ष्मतम अनुभूति खो जाती है। दूसरों को देने में जो सुख प्राप्त होता है, वह खुशी स्थायी होती है। दूसरों की भलाई में जो सुख है, उसे स्वार्थी मानव कभी समझ ही नहीं सकता।
पते की बात करुणामूर्ति बुद्ध से किसी ने प्रश्न किया- यह जीवन एक उलझी हुई गांठ की तरह प्रतीत होता है। यही गांठ बाहर भी है और भीतर भी है। इस गांठ को सुलझाने में कौन सफल हो पाएगा? तथागत कुछ देर तक शांत भाव से बैठे रहे। प्रश्नकर्ता ध्यान से उनकी मुखमुद्रा को निहार रहा था। कुछ देर बाद बुद्ध बोले- जब एक अच्छा मानव, एक बुद्धिमान मानव और एक विचारवान मानव मिलते हैं, तब एक उच्चकोटि की चेतना को विकसित करते हैं। यही समय होता है, जब वे उस उलझन को समझ जाते हैं। जब वही बुद्धिमान और सत्य का उपासक सफल होता है, तब उसे उलझन का समाधान प्राप्त होता है।