How long will it take for a bill passed by the assembly to get the approval of the President and the Governor | विधानसभा से पास बिल को राष्ट्रपति-राज्यपाल की मंजूरी कब तक: SC में 19 अगस्त से सुनवाई, CJI की बेंच बोली- केंद्र-राज्य 12 अगस्त तक पक्ष रखें

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नई दिल्ली18 मिनट पहले

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सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को राष्ट्रपति के उस रेफरेंस पर सुनवाई की तारीखें तय कर दी, जिसमें पूछा गया है कि क्या राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर राष्ट्रपति या राज्यपाल की सहमति के लिए कोई समयसीमा तय की जा सकती है। इस संवैधानिक मुद्दे पर 19 अगस्त से सुनवाई शुरू होगी।

मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अगुवाई वाली पांच जजों की बेंच ने केंद्र और सभी राज्यों को 12 अगस्त तक लिखित पक्ष जमा करने को कहा है। बेंच में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर भी शामिल हैं। बेंच ने कहा कि 19 अगस्त को केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों की प्रारंभिक आपत्तियों पर एक घंटे की सुनवाई होगी, जिन्होंने इस राष्ट्रपति के रेफरेंस की वैधता पर सवाल उठाया है। कोर्ट ने कहा,

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19, 20, 21 और 26 अगस्त को केंद्र और रेफरेंस का समर्थन करने वाले राज्यों की दलीलें सुनी जाएंगी। वहीं, 28 अगस्त और 2, 3 और 9 सितंबर को विरोध करने वाले राज्यों की सुनवाई होगी। जवाबी दलीलें 10 सितंबर को सुनी जाएंगी।

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राष्ट्रपति मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से क्या राय मांगी थी…

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मई में संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी थी कि क्या राष्ट्रपति या राज्यपाल विधेयकों पर फैसला लेने में अनिश्चित काल तक देरी कर सकते हैं या कोई समयसीमा तय की जा सकती है।

राष्ट्रपति ने 15 मई को 5 पन्नों के अपने रेफरेंस में सुप्रीम कोर्ट से अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों को लेकर 14 सवाल पूछे थे। कोर्ट पहले ही कह चुका है कि यह मामला पूरे देश को प्रभावित करेगा।

सुप्रीम कोर्ट ने 3 महीने की समयसीमा तय की थी

यह मामला सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल के उस फैसले से जुड़ा है जिसमें तमिलनाडु सरकार ने राज्यपाल पर विधेयकों को रोकने का आरोप लगाया था। कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि राज्यपाल अनुच्छेद 200 के तहत किसी विधेयक को रोके नहीं रख सकते और उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह माननी होगी।

गवर्नर की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर सुप्रीम कोर्ट के 4 पॉइंट्स

1. बिल पर फैसला लेना होगा: सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अनुच्छेद 201 कहता है कि जब विधानसभा किसी बिल को पास कर दे। उसे राज्यपाल के पास भेजा जाए और राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दे। इस स्थिति में राष्ट्रपति को बिल पर मंजूरी देनी होगी या फिर बताना होगा कि मंजूरी नहीं दे रहे हैं।

2. ज्यूडिशियल रिव्यू होगा: सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आर्टिकल 201 के तहत राष्ट्रपति का निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। अगर बिल में केंद्र सरकार के निर्णय को प्राथमिकता दी गई हो, तो कोर्ट मनमानी या दुर्भावना के आधार पर बिल की समीक्षा करेगा।

अदालत ने कहा कि बिल में राज्य की कैबिनेट को प्राथमिकता दी गई हो और राज्यपाल ने विधेयक को मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के विपरीत जाकर फैसला किया हो तो कोर्ट के पास बिल की कानूनी रूप से जांच करने का अधिकार होगा।

3. राज्य सरकार को राज्यपाल को कारण बताने होंगे: सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब कोई समय-सीमा तय हो, तो वाजिब टाइम लाइन के भीतर फैसला करना चाहिए। राष्ट्रपति को बिल मिलने के 3 महीने के भीतर फैसला लेना अनिवार्य होगा। यदि देरी होती है, तो देरी के कारण बताने होंगे।

4. बिल बार-बार वापस नहीं भेज सकते: अदालत ने कहा कि राष्ट्रपति किसी बिल को राज्य विधानसभा को संशोधन या पुनर्विचार के लिए वापस भेजते हैं। विधानसभा उसे फिर से पास करती है, तो राष्ट्रपति को उस बिल पर फाइनल डिसीजन लेना होगा और बार-बार बिल को लौटाने की प्रक्रिया रोकनी होगी।

विवाद पर अब तक क्या हुआ…

17 अप्रैल: धनखड़ बोले- अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ 17 अप्रैल को राज्यसभा इंटर्न के एक ग्रुप को संबोधित कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की उस सलाह पर आपत्ति जताई, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने की समय सीमा तय की थी।

धनखड़ ने कहा था- “अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं। संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट को मिला विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ 24×7 उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है। जज सुपर पार्लियामेंट की तरह काम कर रहे हैं।” पूरी खबर पढ़ें…

18 अप्रैल: सिब्बल बोले- भारत में राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया

राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने कि जब कार्यपालिका काम नहीं करेगी तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना ही पड़ेगा। भारत में राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया है। राष्ट्रपति-राज्यपाल को सरकारों की सलाह पर काम करना होता है। मैं उपराष्ट्रपति की बात सुनकर हैरान हूं, दुखी भी हूं। उन्हें किसी पार्टी की तरफदारी करने वाली बात नहीं करनी चाहिए।’

सिब्बल ने 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का जिक्र करते हुए कहा- ‘लोगों को याद होगा जब इंदिरा गांधी के चुनाव को लेकर फैसला आया था, तब केवल एक जज, जस्टिस कृष्ण अय्यर ने फैसला सुनाया था। उस वक्त इंदिरा को सांसदी गंवानी पड़ी थी। तब धनखड़ जी को यह मंजूर था। लेकिन अब सरकार के खिलाफ दो जजों की बेंच के फैसले पर सवाल उठाए जा रहे हैं।’ पूरी खबर पढ़ें…

8 अप्रैल: विवाद सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से शुरू हुआ

सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के केस में गवर्नर के अधिकार की सीमा तय कर दी थी। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने कहा था, ‘राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है।’ सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के 10 जरूरी बिलों को राज्यपाल की ओर से रोके जाने को अवैध भी बताया था।

इसी फैसले के दौरान अदालत ने राज्यपालों की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर भी स्थिति स्पष्ट की थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल की तरफ से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सार्वजनिक किया गया। पूरी खबर पढ़ें…

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