[ad_1]
गुणवंत शाह23 मिनट पहले
- कॉपी लिंक

इंसान जब सुखी होता है, सुखी भी ऐसा कि वह परम सुख की स्थिति में होता है, तब भी उसे चैन नहीं मिलता है। मौत का डर उसे हमेशा सताता रहता है। मौत नाम की इस अदृश्य चींटी की चुभन उसे लगातार प्रताड़ित करती रहती है। आखिर इस प्रताड़ना का सार क्या है? जवाब है- तुझे एक दिन यह सबकुछ छोड़कर जाना है। चींटी की इस चुभन को आज हर कोई महसूस कर रहा है। सिर पर जब मौत की तलवार लटकी हो, तो उस समय मिलने वाला सुख भी भाता नहीं है। वह सुख खट्टा-मीठा, नमकीन, तीखा बनकर उसे सताता रहता है।
इस तरह की पीड़ा को नकारना ही अज्ञान है। इसी पीड़ा से जब वैराग्य का जन्म होता है, उसे ही ज्ञान कहते हैं। ज्ञान की यह तीव्र लालसा ऐसी जिज्ञासा को जन्म देती है, जिसे उपनिषद के ऋषियों ने “ब्रह्मजिज्ञासा’ कहा है। इसी ब्रह्मजिज्ञासा की तीव्रता में मृत्यु का भय एक ‘कीटदंश’ की तरह बार-बार सामने आता है। इस पीड़ा से मुक्ति के लिए मानवजाति को जो औषधि प्राप्त हुई, उसे प्रेम कहा गया। मृत्यु पर विजय पाने का एकमात्र उपाय है प्रेम। लेकिन यह प्रेमतत्व अत्यंत गूढ़ और दुर्लभ है। जब मनुष्य ने प्रेम की तीव्र अनुभूति की, तब उसे एक नाम मिला- योगेश्वर कृष्ण। उनकी लीला ही ब्रजभूमि और उस प्रेम का पता है ब्रजधाम। सवाल यह उठता है कि इंसानों को यह पता देने वाला आखिर है कौन? हम गर्व से कह सकते हैं कि ‘श्रीमद्भागवत’ के दशम स्कंध के रचयिता महाकवि वेदव्यास ने ही हमें उनका पता दिया।
गोपियों के प्रेम को समझना मुश्किल 1897 में जब स्वामी विवेकानंद कोलकाता में श्रीरामकृष्ण मठ में थे, तब उन्होंने गीता और वेदांत की कक्षाएं शुरू की थीं। बंगाल में उन्होंने श्रीकृष्ण के बारे में कहा था, ‘गोपियों के प्रेम को समझना बहुत कठिन है। इस प्रेम का वर्णन कोई और नहीं, स्वयं व्यासपुत्र शुकदेव करते हैं। यह प्रेम इतना पवित्र है कि जब तक कोई सब कुछ त्याग नहीं देता, तब तक इसे समझ नहीं सकता। यही कृष्णावतार का रहस्य है। गीता जैसा महान ग्रंथ भी इस प्रेम की तीव्रता को नहीं छू सकता। इसमें प्रेमी को केवल कृष्ण ही दिखाई देता है, उसके सिवा कुछ भी नहीं। इस अलौकिक प्रेम की अनुभूति श्रीकृष्ण ने ही कराई।’ प्रेम और अहिंसा एक-दूसरे के पूरक हैं। जहां प्रेम है, वहां हिंसा नहीं हो सकती। प्रेम अहिंसा का सगा भाई है। बुद्ध कहते हैं, “गाय का मांस खाना मां के मांस के समान है।’
मानवता और दानवता के बीच का अंतर मानवता और दानवता के बीच का अंतर ही सभ्यता है। ऋषभदेव अहिंसा धर्म के पहले तीर्थंकर हुए। जो समाज जानबूझकर या अनजाने में भी हिंसा से बचे, वह सभ्य कहलाता है। जैन धर्म में अहिंसा को परम धर्म माना गया है। हमारे द्वारा अनजाने में भी जो प्राणी हिंसा होती है, उसके लिए हमें क्षमा मांगनी चाहिए। पर्यूषण पर्व इसी क्षमायाचना का पर्व है। महावीर की अहिंसा और बुद्ध की करुणा से भारतीय संस्कृति को नई शीतलता और नई दिशा मिली। इसका प्रभाव इतना था कि अनेक लोग मांसाहार छोड़कर शाकाहारी बन गए। एक बार विनोबा भावे से पूछा गया- गांधीजी गुजरात में ही क्यों जन्मे? तो उन्हें जवाब मिला- गुजरात ही दुनिया का सबसे अधिक शाकाहारी प्रदेश है। ऐसे प्रदेश में गांधीजी जन्म नहीं लेंगे, तो फिर कौन लेगा?
जीवन का आनंद मेरे बाग में इंद्रगोप यानी रानीकीड़ा, वही लाल मखमली त्वचा और सिंगों वाला कीड़ा धीरे-धीरे सरकता है। उस पर हमारा पैर न पड़ जाए, इसका हमें ध्यान रखना होता है। यह ध्यान रखना ही वास्तव में जीवन का सम्मान करना होता है। जब मैं उस कीड़े का सम्मान करता हूं तो अपने जीवन का भी आदर कर रहा होता हूं। जीवन से अधिक मूल्यवान चीज आज तक मानव को नहीं मिली। भगवान का क्रम भी जीवन के बाद ही आता है।
एक व्यक्ति की प्रार्थना “हे प्रभु, मुझसे बात करो।’ और तभी कोयल ने मधुर तान छेड़ी। “हे प्रभु, मुझे कुछ कहो।’ और आकाश में बिजली चमकी, लेकिन इंसान ने कुछ नहीं सुना। “हे प्रभु, मुझे दिखाओ!’ और सूर्योदय हुआ, लेकिन इंसान ने देखा नहीं। “हे प्रभु, मुझे चमत्कार दिखाओ।’ और गाय ने बछड़े को जन्म दिया, लेकिन इंसान ने ध्यान नहीं दिया। “हे प्रभु, मुझे छुओ।’ और प्रभु ने उसे छू लिया, लेकिन इंसान ने उसे उड़ती तितली समझकर झटक दिया। आखिर में इंसान ने कहा: “हे सृष्टिकर्ता, मुझे सृष्टि का रहस्य बताओ।’ और प्रभु मौन हो गया। तभी मां ने आकर उसे अपनी छाती से लगा लिया!
[ad_2]
Source link