रूमी जाफरी3 घंटे पहले
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पिछले हफ्ते मैं, जावेद अख्तर साहब, शबाना आजमी जी, बोनी कपूर साहब, जैकी श्रॉफ, सुनील शेट्टी, रजत रवैल, और भी कई दोस्त एक शादी समारोह में भाग लेने के लिए थाईलैंड के शहर फुकेत गए थे। यह चार दिन का पूरा सफर बातों में, गपशप में और कहकहों में कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला।
खासकर जावेद साहब को सुनने का तजुर्बा ही कुछ और है। वो एक ऐसे शख्स हैं, जिन्हें जितना भी सुनो तो लगता है, कम सुना। न उनके किस्से खत्म होते हैं और न हमारा दिल भरता है। वैसे तो जावेद साहब की पर्सनल और प्रोफेशनल दोनों तरह की जिंदगी के बारे में ज्यादातर बातें आपको पता ही होंगी, मगर आज मैं आपको दो दिलचस्प किस्से बताने जा रहा हूं। ये किस्से उन्होंने खुद मुझे फुकेत में बताए थे।
जैसा कि जावेद साहब ने बताया, एक इस्लामिक रिवाज है कि जब बच्चा पैदा होता है तो उसके कान में अजान दी जाती है। लेकिन मेरे वालिद कम्युनिस्ट पार्टी के मेंबर थे। तो जब मैं पैदा हुआ तो उस वक्त उन्होंने मेरे कान में कम्युनिस्ट पार्टी के मेनिफेस्टो की चंद लाइनें पढ़कर सुनाई थीं। सब यही कहते हैं कि सबसे शुरुआती आवाज का असर होता है, शायद इसीलिए मैं कम्युनिस्ट हो गया।
सबने पूछा कि बच्चे का नाम क्या रखोगे, तो एक दोस्त ने मेरे वालिद साहब को मशवरा दिया कि जानिसार, तुम्हारी नज्म का मिसरा है ‘लम्हा लम्हा किसी जादू का फसाना होगा’। बस ये तुम्हारा बेटा ही तुम्हारा फसाना है, तो इसका नाम जादू रख दो। लिहाजा, मेरे वालिद ने मेरा नाम ‘जादू’ रख दिया। अब जब मैं बड़ा हुआ और स्कूल में एडमिशन का टाइम आया तो वहां तो सिर्फ जादू से काम चलने वाला नहीं था। वहां तो पूरा मुकम्मल नाम चाहिए था और जादू की तो मुझे भी और सबको भी आदत पड़ गई थी। तो उससे मिलता-जुलता नाम ढूंढ़ा जाने लगा। इसी नाम की तलाश में मेरा नाम ‘जावेद’ पड़ गया। सबने जावेद नाम पर हां कर दी। तो दिलचस्प बात यह है कि आमतौर पर नाम से उपनाम यानी ‘पेट नेम’ निकलता है। लेकिन मेरे पेट नेम ‘जादू’ से मेरा नाम निकला ‘जावेद’।
इसी बात पर मुझे जॉन एलिया साहब का एक शेर याद आ रहा है:
अपने सब यार काम कर रहे हैं और हम हैं कि नाम कर रहे हैं
एक दूसरा किस्सा उनके एक दोस्त से जुड़ा है। जावेद साहब जब भोपाल में थे, तो उस समय उनके एक बहुत अजीज दोस्त हुआ करते थे मुख्तार सिंह। जावेद साहब ने बताया कि 1965 में जब वे भोपाल से बम्बई रवाना हुए तो उस वक्त मुख्तार सिंह भी भोपाल से विदेश चले गए। जाते वक्त वो जावेद साहब को अपना कड़ा पहनाकर गए थे। फिर जावेद साहब की मुख्तार सिंह से कभी मुलाकात नहीं हो पाई। जावेद साहब ने मुझे बताया, मुझे हमेशा उसकी याद आती थी। मैंने कई बार भोपाल में उसके बारे में पता करने की कोशिश की, लेकिन वहां तो उसका कोई था ही नहीं।
खैर जिंदगी का इतना अरसा गुजर गया और जावेद साहब की मुख्तार सिंह से मुलाकात नहीं हो पाई। वो उन्हें याद करते रहे, लेकिन उनका कुछ अता-पता नहीं चल पाया। जावेद साहब ने बताया, कुछ साल पहले मैं लंदन गया। वहां बीबीसी में मेरा इंटरव्यू था। वहां इंटरव्यू लेने वाले ने बताया कि वो भी एक शायर हैं और उन्होंने अपनी एक किताब मुझे पेश की। वो जब स्टूडियो में कैमरा, साउंड आदि की तैयारी करने लगे तो मैं वहीं बैठकर चाय-कॉफी पीते-पीते उनकी किताब देखने लगा। किताब में मैं उसका प्रीफेस (भूमिका) पढ़ने लगा। मुझे अच्छा लगा तो मेरी दिलचस्पी जागी कि आखिर यह लिखा किसने है। आखिर में देखा। वहां नाम लिखा हुआ था – मुख्तार सिंह। मैंने उन इंटरव्यू लेने वाले साहब को बुलाया और पूछा कि ये मुख्तार सिंह कौन हैं, तो उन्होंने कहा कि मेरे जानने वाले हैं और काबिल आदमी हैं, इसीलिए मैंने उनसे लिखवाया है। मैंने कहा, इनसे मेरी बात करवाओ। उन्होंने फोन लगाया। मैंने फोन पर बात की तो वह मेरा दोस्त मुख्तार सिंह ही निकला। थोड़ी देर में ही वो स्टूडियो में आ गया। आप उस जज्बात को महसूस नहीं कर सकते, जो मेरे और मुख्तार सिंह के इतने साल बाद मिलने में था। मैंने मुख्तार सिंह को अपना हाथ उठाकर वो कड़ा दिखाया और कहा कि देखो, तुम्हारा दिया कड़ा आज भी मेरे हाथ में है।
आज भी जावेद साहब के हाथ में मुख्तार सिंह का वही कड़ा मिल जाएगा। हमने हिंदी फिल्मों में देखा है कि बचपन में बिछड़े दो दोस्तों की जवानी में मुलाकात होती है। ये उससे भी आगे भी बात थी। ये दो दोस्त जवानी में बिछड़े थे और बुढ़ापे में मिले, क्योंकि इन दोनों की मुलाकात तकरीबन 60 साल के बाद हो रही थी। इसी बात पर जावेद साहब की ही लिखी फिल्म ‘शोले’ का ये गाना सुनिए, अपना खयाल रखिए और खुश रहिए।
ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे…