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गुणवंत शाह1 घंटे पहले
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ऐसा लगता है कि पृथ्वी पर व्याप्त मानवता केवल कुछ शब्दों पर ही टिकी है- प्रेम, करुणा, अहिंसा और आनंद। प्रेम और आनंद मानव की आवश्यकताएं हैं। करुणा और अहिंसा मानवता की पहचान हैं। किंतु अक्सर यह देखा गया है कि आवश्यकताओं को अनदेखा किया जाता है। दूसरी ओर त्याग की पूजा की जाती है। धर्म के कथित ठेकेदारों का यह शगल है।
करुणा और अहिंसा इंसान की जरूरतों की सूची में नहीं हैं। लेकिन अगर किसी को सच्चा प्रेम मिल जाए तो वह स्वाभाविक रूप से करुणा की ओर ही कदम बढ़ाएगा। जिसे गहरे आनंद की प्राप्ति होती है, उसे हिंसा करने की फुर्सत ही नहीं मिलेगी। प्रेम के बिना स्टालिन और आनंद के नाम पर शून्य हिटलर जैसे लोग ही मानवता को पीड़ा पहुंचाते हैं। इंसान को प्रेम और आनंद का चस्का लगा दो तो देखो कितनी मानवता हिंसा और क्रूरता से बचती है। अपनी मां को ध्यान से देखो तो समझ में आ जाएगा कि उसके चेहरे पर कितनी शांति होती है।
करुण पुकार है मूल्यवान एक मां के लिए निष्ठुर बनना बहुत ही मुश्किल होता है। अपने ही बच्चों से छल करना उसके लिए लगभग असंभव है। मां के लिए नास्तिक बनना भी थोड़ा मुश्किल है। दूसरों की पीड़ा को देखकर एक मां के मुंह से जो करुण पुकार निकलती है, वही मानवता की सबसे कीमती चीज होती है। मानवजाति के पास करुणा और अहिंसा का जो खजाना है, वह इसी करुण पुकार में प्रकट होता है। दूसरों का दुख जब अपना बन जाए तो अनायास ही जो चीख निकलती है, यही चीख बहुत मूल्यवान है। जब दंगे हो रहे हों या फिर कहीं युद्ध हो रहा हो, उस समय पीड़ा और वेदना की जो नदी बहती है, उसे देखकर हमारे भीतर से हूक उठती है, वह किसी वेदमंत्र से कम पवित्र नहीं होती। पूरी मानवता इसी करुण पुकार पर ही टिकी हुई है। अंतिम आर्तनाद एक शिकारी भी जब हिरण के अंतिम आर्तनाद को सुनता है तो उसका दिल भी दहल जाता है। लेकिन जिसके पास करुणा नाम की कोई चीज है ही नहीं, वह इस आर्तनाद को कभी महसूस ही नहीं कर सकता। देखा जाए तो यही असली त्रासदी है। हमारे भीतर का दुर्योधन कभी कृष्ण को समझ ही नहीं सकता। इसे कभी न भूलें कि करुणा को खोने वाला ही आगे चलकर खलनायक बनता है। हालांकि जीवन के अंतिम क्षणों में कई बार क्रूर से क्रूरतम व्यक्ति को भी सच्चाई समझ में आ जाती है।
गुर्जिएफ का कथन है- सब कुछ जीवित है, सब आपस में परस्पर जुड़े हुए हैं। कहा गया है कि जब कोई व्यक्ति दूसरे की पीड़ा को देखकर जो कुछ महसूस करता है, उसके मूल में यह एकता ही होती है। एक टेलीपैथी काम करती है। दूसरों की पीड़ा में एकाकार हो जाना। वेदों में कहा गया है कि सभी के हृदय परस्पर जुड़े हुए हैं। सभी के दिलों की चाहत एक ही होती है। दूसरों की पीड़ा को देखकर दिल से निकली करुण पुकार या कह लें, आर्तनाद, बहुत ही मूल्यवान है। इसे किसी दौलत से नहीं तौला जा सकता।
जीवन का आनंद मेरे बाग में इंद्रगोप यानी रानीकीड़ा, वही लाल मखमली त्वचा वाला और सिंगों वाला कीड़ा धीरे-धीरे सरकता है। उस पर हमारा पैर न पड़ जाए, इसका हमें ध्यान रखना होता है। यही ध्यान रखना ही वास्तव में जीवन का सम्मान करना होता है। जब मैं उस कीड़े का सम्मान करता हूं तो अपने जीवन का भी आदर कर रहा होता हूं। जीवन से अधिक मूल्यवान चीज आज तक मानव को नहीं मिली। भगवान का क्रम भी जीवन के बाद ही आता है।
दिव्य असंतोष बासु भट्टाचार्य ने एक बार अपने दोस्त को बताया था कि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर को संगीत की समझ यदुराय नामक व्यक्ति से मिली थी। लेकिन यदुराय को अपने ज्ञान से संतोष नहीं था। एक सच्चे कलाकार की पूंजी यही दिव्य असंतोष होता है। यदुराज को लगा कि हिमालय की शांति और प्रकृति की गोद में जाकर संगीत को आत्मसात करना चाहिए। उनकी इसी सोच ने उन्हें पूरे छह माह तक हिमालय की गोद में बिताने में सहायता की। इसके बाद उन्हें समझ में आया कि मौन में एक अनोखा संगीत समाया हुआ है। मुंह से एक शब्द का भी उच्चारण न किया जाए तो चित्त की गहराई में शांति का आभास होता है। इस समय प्रकृति से जो स्वर फूटते हैं, वही होता है मौन का संगीत।
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