देवदत्त पट्टनायक11 मिनट पहले
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ब्रिटिश म्यूजियम में रखी हुई हरिहर की प्रतिमा। इसके बाएं हिस्से की एक भुजा में शिव का प्रतीक त्रिशूल है तो दाएं हिस्से की एक भुजा में विष्णु का प्रतीक चक्र।
वियतनाम और कंबोडिया तक हिंदू धर्म का विस्तार कैसे हुआ, किस तरह से दो विशेष समुदाय शिव तथा विष्णु की आराधना को इन दो देशों तक लेकर आए, इसकी विस्तार से चर्चा हम पहले कर चुके हैं। आज इस चर्चा को जारी रखते हैं।
शैववाद और वैष्णववाद बौद्ध धर्म से अलग थे। बौद्ध धर्म ने त्याग और भिक्षुओं को दान देकर पुण्य प्राप्त करने की बात की। इसके विपरीत शिव पर आधारित विचारधारा में राजा को अधिक शक्तिशाली बनाने की बात कही गई। वहीं, अगर विष्णु पर आधारित विचारधारा की बात करें तो राजा को अपने राज्य को अधिक समृद्ध बनाने के लिए प्रेरित किया गया। यह राज्य विष्णु की चार भुजाओं की तरह राजा के चारों ओर फैला होता था। ये दो प्रकार के राजत्व वियतनाम और कंबोडिया में पाए गए- शिव से प्रभावित राजत्व भीतरी भागों में पाया गया तो विष्णु से प्रभावित राजत्व तटवर्ती क्षेत्र में प्रचलित था।
फिर, 7वीं और 8वीं सदियों के बीच कुछ बदलाव नजर आने लगा। इस समय हरिहर छवियों (प्रतिमाओं) की संख्या बढ़ने लगी थी। इन छवियों में चार भुजाओं वाले देवता थे। इस देवता के एक भाग में विष्णु थे। उन्होंने सुनहरा मुकुट पहना हुआ था। दूसरे भाग में व्याघ्र चर्म (बाघ की खाल) पहने शिव थे। वे अधिक तपस्वी थे और उनकी जटाएं थीं। इसका एक संकेत तो यह लगाया जाता है कि अपने आप को शिव का रूप समझने वाले राजाओं ने विष्णु को पूजने वाले राजाओं को वश में कर लिया। लेकिन इसके बावजूद विष्णु की प्रतिमाएं या छवियां हाशिये पर नहीं की गईं। शिव और विष्णु की छवियों के मिलन से हरिहर छवियां निर्मित की गईं। हिंदू धर्म और राजत्व के अन्य प्रकारों के बीच यह मूल अंतर है। कंबोडिया में सीएम रीप के पास हरिहरालय नामक स्थल पर इस मिश्रित देवता का मंदिर भी है।
बहुधा माना जाता था कि राजा शिव जैसे स्वतंत्र थे, जबकि उन पर विष्णु की तरह शासन करने का उत्तरदायित्व था। विष्णु ने राम और कृष्ण का रूप लिया और रामायण तथा महाभारत के युद्धों की तस्वीरें बाद में बनाए गए मंदिरों की दीवारों पर उकेरी गईं। युद्ध की ये तस्वीरें पहली बार इंडोनेशिया के मध्य जावा द्वीप पर 9वीं सदी के प्रम्बानन के मंदिरों में देखी गईं। इससे प्रेरित होकर कंबोडिया के खमेर राजाओं ने यही दृश्य 12वीं सदी में मेकोंग डेल्टा के अंगकोर वाट मंदिर परिसर में बनवाए।
यदि राजा द्वारा बौद्ध धर्म अपनाया गया होता तो विष्णु और शिव की प्राचीन छवियां ओझल हो चुकी होतीं। लेकिन चूंकि राजा हिंदू धर्म का पालन करते रहे और इसलिए संभवतः पहले के देवताओं की छवियां ओझल न हो पाईं या मिटाई नहीं गईं, बल्कि एक ही देवता के शरीर में दोनों देवताओं की छवियां मिला दी गईं। इस प्रकार, हरिहर छवियों का उभरना शैववाद और वैष्णववाद के मिलन का स्पष्ट संकेत है, क्योंकि वहां दो प्रतिद्वंद्वी विचारों को मिलाने की इच्छा थी, न कि किसी एक विचार को दबाने की।
हरिहर की छवियां भारत भर में पाई जाती हैं। ओडिशा का प्रसिद्ध लिंगराज मंदिर शिव को समर्पित है और पाशुपत समुदाय से प्रभावित होकर बनाया गया है। लेकिन यहां न केवल शिव को पसंद आने वाले बिल्व पत्र बल्कि विष्णु को भाने वाले तुलसी के पत्ते भी अर्पित किए जाते हैं। इस प्रकार, लिंगराज को हरिहर माना जाता है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि ओडिशा के प्राचीन राजा शैव थे। उन्होंने भुवनेश्वर में मंदिर बनवाए। बाद में वहां वैष्णव राजाओं ने राज किया। उन्होंने पूरी के समुद्र तट पर स्थित मंदिरों में पूजा की। वे जानते थे कि उनके राज्य में दोनों समूहों के बीच मैत्री बनाए रखना आवश्यक था। इसलिए उन्होंने हरिहर के विचार को बढ़ावा दिया। इस प्रकार, कई लोग जगन्नाथ को भी शिव या भैरव का रूप मानते हैं।
वियतनाम, कंबोडिया, ओडिशा और यहां तक कि तमिल क्षेत्र में भी पाई जाने वाली इस समन्वयवादी परंपरा से हमें याद दिलाया जाता है कि हिंदू धर्म में पुराने और नए विचारों के बीच परस्पर शांति बनाए रखकर दोनों को मिलाने की शक्ति है।