गौरव पाठक2 घंटे पहले
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वाहन चोरी के मामलों में उपभोक्ताओं और बीमा कंपनियों दोनों के लिए जटिल चुनौतियां उत्पन्न होती हैं। मोटर वाहन चोरी की बढ़ती घटनाओं के बीच बीमा पॉलिसी के तहत उपभोक्ता अधिकारों की समझ बेहद जरूरी हो जाती है। हालिया न्यायिक निर्णयों ने बीमा धारकों (पॉलिसी होल्डर) की जिम्मेदारियों और बीमाकर्ता (इंश्योरर) की देयता के बीच संतुलन को स्पष्ट किया है।
फंडामेंटल ब्रीच डॉक्ट्रिन बीमा कंपनियां छोटी-मोटी गलती या उल्लंघन के आधार पर या केवल तकनीकी आधार पर दावे को पूरी तरह से खारिज नहीं कर सकतीं। सुप्रीम कोर्ट ने अशोक कुमार बनाम न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड (2023) में यह स्थापित किया कि केवल मूलभूत गलतियों (फंडामेंटल ब्रीच डॉक्ट्रिन) के आधार पर ही दावे को अस्वीकृत किया जा सकता है। इस मामले में इग्निशन स्विच में चाबी छोड़ने की वजह से वाहन चोरी हो गया था। कोर्ट ने माना कि भले ही चाबी छोड़ना लापरवाही है, लेकिन यह इतना गंभीर उल्लंघन नहीं है कि पूरा दावा खारिज किया जाए। इस निर्णय में यह जोर दिया गया कि किसी त्रुटि को मूलभूत माना जाए या नहीं, यह स्थिति विशेष पर निर्भर करता है। मामूली उल्लंघनों के कारण दावा राशि में कटौती हो सकती है, लेकिन देयता पूरी तरह समाप्त नहीं की जा सकती। यह सिद्धांत उपभोक्ताओं को बीमा नीतियों की कठोर व्याख्याओं से सुरक्षा देता है।
नॉन स्टैंडर्ड सेटलमेंट फ्रेमवर्क जब दावा करने वालों की कुछ लापरवाही होती है, लेकिन मूलभूत उल्लंघन नहीं होता, तब अदालतें बीमित घोषित मूल्य का 75% भुगतान करने का आदेश देती हैं। भारती एक्सा जनरल इंश्योरेंस बनाम मूल चंद लालवानी (2025) मामले में राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग ने इसी दृष्टिकोण को बरकरार रखा। याचिकाकर्ता द्वारा वाहन की चाबी इग्निशन में छोड़ने के बावजूद आयोग ने 75% राशि दिलवाई, यह मानते हुए कि यह जानबूझकर किया गया उल्लंघन नहीं था। आयोग ने कई मामलों में नॉन स्टैंडर्ड सेटलमेंट के लिए दिशा-निर्देश स्थापित किए हैं, जो उल्लंघन की गंभीरता पर आधारित होते हैं। मिसाल के तौर पर, अगर आपने वाहन में अनुमति से ज्यादा सामान लादा है, यानी ओवरलोडिंग की है तो बीमा कंपनी आपको कुल बीमित राशि का 75% ही देगी। यानी आपकी गलती मानी जाएगी, लेकिन दावा पूरी तरह खारिज नहीं होगा। लेकिन अगर आपने बीमा खरीदते समय वाहन की सामान ढोने की क्षमता ही कम बताई थी, ताकि प्रीमियम कम देना पड़े तो इस मामले में इन दो स्थितियों में से जिसमें ज्यादा राशि होगी, दावा राशि में से वह काटी जाएगी : या तो जितना प्रीमियम कम दिया गया है, उसका अंतर अथवा कुल दावे की राशि की 25 फीसदी राशि। उदाहरण के लिए अगर आपका दावा एक लाख रुपए का है। सामान्य मामलों में तो 25 फीसदी यानी 75 हजार रुपए के दावे के आप पात्र होंगे। लेकिन इस मामले में अगर आपके द्वारा जितना प्रीमियम चुकाया जाना चाहिए था, उसकी तुलना में 30 हजार रुपए कम चुकाए गए तो अब आप 70 हजार रुपए के दावे के ही पात्र होंगे।
प्रूफ पेश करने का दायित्व बीमा कंपनियों को अस्वीकृति के आधारों को ठोस साक्ष्यों से साबित करना होता है। इफ्को टोकियो बनाम सुनील शिवदास उगले (2025) मामले में महाराष्ट्र राज्य आयोग ने कहा कि केवल अप्रमाणित आरोपों के आधार पर दावा खारिज नहीं किया जा सकता। बीमाकर्ताओं को यह साबित करना होगा कि बीमित ने कोई महत्वपूर्ण तथ्य छुपाया या पॉलिसी का उल्लंघन किया। ‘कोंट्रा प्रोफेरेंटम’ नियम के अनुसार यदि पॉलिसी की भाषा अस्पष्ट है तो उसका अर्थ उपभोक्ता के पक्ष में निकाला जाएगा। कंपनियां अस्पष्ट या विरोधाभासी शब्दों के जरिए देयता से नहीं बच सकतीं।
समय पर सूचना देना जरूरी चोरी के मामले में पुलिस और बीमा कंपनी को शीघ्र सूचना देना अनिवार्य होता है। हालांकि अदालतें पुलिस को त्वरित सूचना और बीमा कंपनी को सूचित करने में विलंब के बीच अंतर करती हैं। बजाज आलियांज जनरल इंश्योरेंस बनाम प्रताप गाद (2024) मामले में गोवा राज्य आयोग ने दावा खारिज कर दिया, क्योंकि पुलिस और बीमाकर्ता दोनों को सूचना देर से दी गई थी और वाहन का बिना अनुमति के कैब के रूप इस्तेमाल किया गया था। इस प्रकार दावा वास्तविक उल्लंघन के आधार पर खारिज हुआ। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने गुरशिंदर सिंह बनाम श्रीराम जनरल इंश्योरेंस (2020) मामले में स्पष्ट किया कि यदि एफआईआर तुरंत दर्ज कर ली गई हो और चोरी सत्यापित हो जाए, तो बीमाकर्ता को महज देरी से सूचना देने के आधार पर दावा अस्वीकार नहीं करना चाहिए। यह उपभोक्ताओं की व्यावहारिक समस्याओं और जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बनाता है।
(लेखक सीएएससी के सचिव भी हैं।)