Will history ever turn in favor of humanity? | रसरंग में चिंतन: क्या इतिहास कभी इंसानियत के पक्ष में करवट लेगा?


गुणवंत शाह8 मिनट पहले

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हमारे बुजुर्ग कह गए हैं कि जगत और जंगल में मानव से इतर कोई प्राणी अपनी ही प्रजाति के अन्य प्राणी की हत्या नहीं करता है। बाघ कभी बाघ की हत्या नहीं करता, हाथी कभी दूसरे हाथी की हत्या नहीं करता, सिंह कभी दूसरे सिंह की हत्या नहीं करता, रीछ कभी दूसरे रीछ की हत्या नहीं करता। लेकिन एक इंसान ही है, जो कई तरह से दूसरे इंसानों की हत्या करता या करवाता है- कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी दौलत के लिए तो कभी सत्ता के लिए।

यह तो विकासवाद का अपमान है। घोर अपमान। मतलब इंसान तो बंदर से भी बदतर हो गया। अकेले चंगेज खान ने चार लाख इंसानों का कत्ल करवाया था। और भी कई राजा, शासक, सुल्तान हुए, जिन्होंने न जाने कितने इंसानों का कत्ल किया, करवाया। दुनिया का इतिहास हिंसा के इतिहास से भरा पड़ा है। तो हमें इस विकासवाद को पराभववाद नहीं कहना चाहिए?विकासवाद का आशय क्या है? हिंसा घटती जाए और अहिंसा बढ़ती जाए। तब यह मान लेना चाहिए कि विकासवाद की दिशा सच्ची है। मगर विकासवाद के साथ संवेदना बढ़ी क्या? मानव ने महावीर स्वामी, महात्मा बुद्ध, जीजस क्राइस्ट, मोहम्मद पैगम्बर और महात्मा गांधी की जय-जयकार की, पर उनकी बातों को स्वीकार नहीं किया। धर्म कम से कम अहिंसा के मामले में निष्फल साबित हुआ। विज्ञान एटम बम तक जरूर पहुंच गया, परंतु एक इंसान दूसरे इंसान के दिलों तक नहीं पहुंच पाया। और इसमें क्या विज्ञान की गलती मानी जाएगी? गलती विज्ञान की नहीं, इंसान की है, इंसानी मानसिकता की है।

पूरा पश्चिम एशिया हिंसा की चपेट में है। उधर, इस समय रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध जारी है। सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद सत्ता छोड़कर रूस की शरण में है। रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध कब बंद होगा, कहा नहीं जा सकता। लगता है मानवजाति को अपने अंत की व्यग्रता है। कहां गया विकासवाद? अमीबा से शुरू होकर आदम तक पहुंचने में इतिहास को लाखों साल लगे, महात्मा गांधी की बात समझने में कितनी सदी बीत जाएगी? गांधीजी ने समस्याओं के समाधान के साथ कई अन्य उपाय बताए। अफसोस, अब वे हमारे बीच नहीं हैं। सवाल यह है कि आखिर अहिंसा सहज कब बनेगी? मानवजाति अहिंसक समाज की ओर कब अग्रसर होगी?

इतिहास कहता है कि कब्र की ओर से आशा मत रखो। लेकिन फिर भी, जीवन में कभी-कभी बहुत लंबे समय से जिसकी ललक हो, ऐसे न्याय की एक लहर उठ सकती है, जिसमें आशा और इतिहास का संगम घटित हो सकता है। यह विचार, यह गहराई औरंगजेब जैसे बादशाह की समझ के बाहर की बात थी। उसमें इतना विवेक ही नहीं था कि न्याय और अन्याय के बीच का अंतर समझ सके। हिंदुओं को सताना उसकी ‘हॉबी’ बन गई थी और यह सब वह इस्लाम के नाम पर करता था।

छत्रपति शिवाजी महाराज ने औरंगजेब को पत्र में लिखा था: “अल्लाह तो सभी इंसानों का ‘रब्बिल आलमीन’ (संपूर्ण जगत का पालनहार) है, सिर्फ मुसलमानों का ‘रब्बिल मुस्लिमीन’ नहीं!” क्या ही खूबसूरत बात है। शिवाजी महाराज, औरंगजेब को सच्चे इस्लाम का मर्म समझा रहे हैं। औरंगजेब में अगर थोड़ा सा भी विवेक होता तो वह इस बात को समझ जाता और शिवाजी को अपना गुरु बना लेता।

विडंबनाएं सिर्फ इस्लाम के साथ नहीं है। हर धर्म में ऐसे अनर्थ और विडंबनाएं होती आई हैं। साने गुरुजी ने एक बार बड़ा प्रश्न उठाया था- क्या अद्वैत (सबमें एकता का दर्शन) और अस्पृश्यता (छुआछूत) साथ-साथ टिक सकती हैं? आज तक कोई ठोस जवाब नहीं मिला। आत्मा और परमात्मा पर अनेक दर्शन हुए, तर्क-वितर्क हुए, लेकिन मानव-मानव के बीच की खाई नहीं पट पाई। अभी भी गहराई तक मौजूद है। गांधीजी और बाबासाहेब आंबेडकर, दोनों ने बहुत कोशिशें कीं। लेकिन जीत पाए क्या?

पगड़ी का वल (अंतिम सिरा) हमें याद दिलाता है कि धर्म, सत्ता और समाज की परतों में न्याय को खोजना, आशा और इतिहास को एक सूत्र में पिरोने जैसा कठिन कार्य है। पर जब कोई शिवाजी अपने शत्रु को धर्म सिखाए तो यह आशा फिर से जी उठती है कि शायद इतिहास किसी दिन इंसानियत के पक्ष में करवट ले।



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