शनिवार व्रत – पूजन व् व्रत -कथा

शनि देव हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण देवता हैं। उन्हें न्याय के देवता और कर्मों के फल देने वाले देवता के रूप में पूजा जाता है। शनि देव सूर्य और छाया (संवर्णा/सवर्णा) के पुत्र हैं और नवग्रहों में से एक हैं, जो ज्योतिष में महत्वपूर्ण माने जाते हैं। शनि देव का वाहन गिद्ध या कौआ आदि है और वे काले कपड़े पहनते हैं।

शनि देव का कौन सा दिन होता है?

शनि देव का दिन शनिवार होता है और इस दिन उनकी पूजा विशेष रूप से की जाती है। उन्हें उनकी गंभीरता, अनुशासन और कठोर न्याय के लिए जाना जाता है। शनि की दशा और साढ़ेसाती का लोगों के जीवन पर प्रभाव माना जाता है और इस दौरान व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भुगतना पड़ता है। शनि देव की कृपा प्राप्त करने के लिए लोग पूजा-पाठ, व्रत और दान-पुण्य करते हैं।

शनिदेव का व्रत कितने दिन किया जाता है?

शनिदेव के निमित व्रत शुक्ल पक्ष के शनिवार से प्रारम्भ कर न्यूनतम ७, १९ व् अधिकतम ५१ करने चाहिए I व्रत वाले दिन शनिदेव की व्रत कथा पड़नी या सुननी चाहिए और शनिदेव की पूजा कर प्रतिमा को काले वस्त्र पहनाने चाहिए I इस दिन ताम्बे या लोहे के पात्र में लौंग, इलाइची, लोहे की कील, काले रंग के तिल, कच्चा दूध, गंगा जल एकत्र कर पश्चिमाभिमुख हो कर पीपल की जड़ में चढ़ाए और शनिदेव के बीजमंत्र की तीन, सात, या उन्नीस माला का जाप करें I उड़द की पीठी, मिष्ठान , तेल में तले पकवान काले कुत्ते या दीन विप्र को दें I

व्रत या उपवास करने से न केवल आत्मिक शांति मिलती है वरन मन भी शुद्ध रहता है I शनिदेव की कृपा से दरिद्रता का नाश व् आरोग्य की प्राप्ति होती है और सारे बिगड़े काम भी बनते है I

शनिदेव की सम्पूर्ण व्रत कथा

एक बार नवग्रहों में इस बात पर विवाद हो गया की उनमें सबसे बड़ा कौन है ? जब कोई निर्णय नहीं निकला तो वो सब देवराज इन्द्र के पास गए और उन्हें वस्तुस्तिथि से अवगत कृते हुए निर्णय करने की प्रार्थना करने लगे I देवराज ने सोचा कि यदि मैंने किसी एक ग्रह को श्रेष्ठ बताया तो अन्य ग्रह रुष्ट होकर अपना प्रभाव मुझ पर दिखाएंगे I अतःउन्होंने ग्रहों से कहा कि नवग्रहों ! मै आपका ये निर्णय नहीं कर सकता, आप सब भूमण्डल पर जाइए , जहां सम्राट विक्रमादित्य का शासन है , वे न्यायप्रिय व् बहुत बुद्धिमान है वे आपके विवाद का कोई निर्णय कर सकते है Iसर्वविदित है कि उस समय उज्जैन नगरी में वीर विक्रमादित्य का शासन था वे बहुत ही न्यायप्रिय, धर्मज्ञ एवम दानी थे I देवराज के परामर्श पर सभी ग्रह विक्रमादित्य की सभा में पहुंचे , राजन ने उनका सत्कार किया और उनका सारा विवाद सुना I सुनकर राजा भी चिंताग्रस्त हो गए कि किसे छोटा कहें और किसे बड़ा I
अंततः उन्होंने नौ धातुओं के अलग -अलग सिंहासन बनवाए और अपनी राजसभा में श्रेष्ठ स्थान पर उन्हें रखवा दिया I ग्रहों को बुलाकर उन्हें ग्रंथो में जो क्रम हो, उसी के अनुसार हरेक ग्रह को सिंहासन ग्रहण करने का आग्रह किया Iइस प्रकार क्रमानुसार स्वर्ण सिंहासन पर सूर्य, रजत पर चंद्र, पीतल पर मंगल, कांसा पर बुध , ताम्बा पर बृहष्पति, सीसा पर शुक्र, जस्ता पर राहु व् अभ्रक पर केतु विराजमान हो गए I अंत में लोहे का सिंहासन खाली रह गया जो शनिदेव जी के हिस्से में आया जो शनि देव ने अपना अपमान समझा और आग-बबूला हो गए I

वे राजा से बोले कि हे मुर्ख राजा ! तू मेरे बल व् पराक्रम से परिचित नहीं है, मै अकेला ही जो एक राशि पर पूरे ढाई बर्ष तक भर्मण करता हूँ I तू इस बात से अनभिज्ञ है कि मेरी वक्र दृष्टि के प्रभाव से देवता भी अछूते नहीं रहे, उन्हें भी दुख भोगने पड़े है भगवान् श्री राम पर जब मेरी साढ़ेसाती आई तब उन्हें वनवास भोगना पड़ा , रावण पर जब साढ़ेसाती आई तो उसका वंश सहित नाश हो गया I इस लिए मेरा अपमान करने वाले मुर्ख राजा ! अब तू सावधान हो जा I इतना सुनकर महाराज विक्रमादित्य बोले कि हे शनिदेव ! मैने तो आपके प्रति कोई अन्याय नहीं किया, फिर भी आप इसे अपना अपमान समझ रहे हो तो आपकी इच्छा I आप जो चाहें कर सकते है मुझे वही भोगना जो मेरे भाग्य मै लिखा है I कुछ समय व्यतीत होने पर राजा पर शनि की साढ़ेसाती आई तो उस काल मेँ स्वयं शनिदेव ने व्यपारी का वेश धारण किया और अनेक अश्वों के साथ उज्जैन मेँ पधारे I राजा ने उन अश्वों मेँ एक चुना और उस पर सवार हो गए, सवार होते ही अश्व तीव्र गति से भागा और राजा को घने बीहड़ मेँ गिराकर गायब हो गया I राजा उस जंगल मेँ भूखे प्यासे इधर-उधर भटकने लगे I तभी उन्हें रास्ते मेँ एक ग्वाला दिखाई दिया, उस ग्वाले ने जो रुखा सूखा भोजन था राजा को खिला दिया और निकटवर्ती राज्य का मार्ग भी बताया I राजा ने प्रसन्न होकर पुरस्कार स्वरूप सोने की मुद्रिका ग्वाले को दे दी I नगर मेँ पहुंच कर राजा एक दूकानदार सेठ के पास जाकर बैठ गए और बोले कि हे भाई , मै उज्जैन नगर का रहने वाला हूँ , नाम भीमा है I सेठ ने राजा को भला जानकर दुकान मै स्थान दे दिया और उनकी आवभगत कि I भाग्यवश उस दिन सेठ कि दुकान मै बहुत बिक्री हुई, सेठ ने राजा को भाग्यशाली समझकर भोजन करवाने अपने घर ले आया I भीमा बने राजा जब भोजन करने लगे तो उन्होंने देखा कि खूंटी पर एक हार लटका है और खूंटी उस हार को निगल रही है I राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ Iभोजन करने के पश्चात जैसे ही सेठ ने हार को अपने गले मै डालना चाहा उसे वहाँ न पाकर भीमा बने राजा पर संदेह किया और उन्हें अपने राजा के सामने ले आया I उस नगर के राजा ने सेठ कि बात सुनकर भीमा के हाथ पैर कटवा दिए इस प्रकार शनिदेव के कोपभाजन बने राजा विक्रमादित्य भीमा के रूप मै दुर्दिन व्यतीत करने लगे I एक दिन एक तेली की दृष्टि भीमा पर पड़ी और उसने दयावश अपने कोल्हू पर बैठा दिया I अब भीमा मुँह से बैलों की रस्सी पकड़कर हांकता और तेल निकालता I धीरे धीरे समय व्यतीत होने लगा और वर्षा ऋतू आ गयी, भीमा अपनी तन्हाई व् उदासी दूर करने के लिए कोल्हू चलाता हुआ मल्हार राग गाया करता था I राग मल्हार सुनकर नगर के राजा की राजकुमारी उस पर मोहित हो गयी थी I राजकुमारी भीमा से विवाह करना चाहती थी इसलिए उसने अपनी दासी को ये पता लगाने को कहा कि ये कौन व्यक्ति है I दासी ने पता लगाने के बाद राजकुमारी को बताया कि राग मल्हार गाने वाला व्यक्ति अपंग है उसके हाथ पैर कटे हुए है I राजकुमारी ये सब जानकर भी अपनी बात अडिग थी कि वो विवाह करेगी तो उसी से अन्यथा नहीं I राजकुमारी ने अन्न जल त्याग दिया , राजा ने झुंझलाकर कहा कि अगर तेरे भाग्य मै यही है तो यही सही और उसने तेली को बुलाकर कहा कि जो तेरे कोल्हू पर चौरंगा काम करता है उस से राजकुमारी विवाह कि इच्छुक है अतःतू जाकर विवाह की तैयारी कर I इस प्रकार राजा ने राजकुमारी का विवाह चौरंगे बने राजा विक्रमादित्य के साथ धूम धाम से करवा दिया I उसी रात शनिदेव ने राजा को स्वप्नं मेँ दर्शन देकर कहा कि अरे राजा ! मुझे सबसे छोटा बतला कर तूने बड़े कष्ट झेले हैं I तब राजा विक्रमादित्य ने शनिदेव जी से कहा कि हे देव ! जैसा कष्ट मुझे दिया वैसा किसी को मत देना, राजा ने स्वप्नं अवस्था मेँ ही शनिदेव जी से क्षमा मांगी I तब शनिदेव जी ने प्रसन्न होकर राजा के हाथ पैर पहले जैसे कर दिए बोले कि जो मनुष्य नित्य मेरा ध्यान करेगा या मेरी कथा कहेगा या सुनेगा , उसे मेरी दशा काल मेँ कोई कष्ट नहीं होगा  इतना ही नहीं उसके सारे मनोरथ भी पूर्ण होंगे I रात्रि मेँ जब राजकुमारी कि नींद खुली तो विक्रमादित्य का हाथ पैर पहले जैसे देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ I तब राजा विक्रमादित्य ने सारी बातें राजकुमारी को बतला दी I सवेरा होने पर राजकुमारी ने सारा वृतांत अपनी सखियों को बतलाया I यह बात सेठ तक पहुंची तो वह दौड़ा दौड़ा राजा विक्रमादित्य के पास आकर उनके पैरों मेँ गिरकर क्षमा मांगने लगा I राजा ने कहा कि सेठ इसमें आपका कोई दोष नहीं हैं मुझ पर शनिदेव कि प्रतिकूल दृष्टि थी इसलिए मुझे इतने कष्ट उठाने पड़े I फिर सेठ ने राजा को भोजन पर आमंत्रित किया I जब राजा भोजन कर रहे थे तभी खूंटी हार उगलने लगी I राजा नेजब कहा कि जब खूंटी ने हार निगला था , तब मुझ पर शनि की दशा का प्रकोप प्रारम्भ हुआ था लेकिन अब दशा प्रकोप समाप्त हो गया है I फिर सेठ ने भी अपनी कन्या का विवाह राजा विक्रमादित्य से करवा दिया I कुछ समय सेठ के पास ठहरने के बाद राजा विक्रमादित्य अपनी नगरी मेँ लौट आये और उन्होने ढिंढोरा पिटवा दिया कि शनिदेव सभी ग्रहों मेँ सर्वोपरि हैं I तब से उस नगर मेँ शनिदेव कि पूजा व् आराधना होने लगी I शनिदेव व् राजा विक्रमादित्य की इस कथा को जो भी मनुष्य पड़ता या सुनता हैं , उस पर शनिदेव की असीम कृपा रहती है I

शनिदेव जी की आरती

*** औम कृष्णांगाय विद्य्महे रविपुत्राय धीमहि तन्न: सौरि: प्रचोदयात***

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